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दलेस-जलेस पुस्तक परिचर्चा श्रृंखला का साझा आयोजन

दलेस-जलेस पुस्तक परिचर्चा श्रृंखला का साझा आयोजन

पुस्तक परिचर्चा

बलविंद्र सिंह बलि
महासचिव, दलेस

लित लेखक संघ और जनवादी लेखक संघ द्वारा डॉ. आम्बेडकर सभागार, कनाट प्लेस, दिल्ली में 13 जुलाई 2024 को साझा आयोजन किया गया। इस कड़ी में नवगीतकार जगदीश पंकज के नवगीत संग्रह ‘वर्तमान टूटे कंधों पर’ पर चर्चा की गई। यह कार्यक्रम दलेस के अध्यक्ष हीरालाल राजस्थानी और जलेस के दिल्ली राज्य के उपाध्यक्ष सत्य नारायण की अध्यक्षता में संपन्न किया गया।

अध्यक्ष मंडल से हीरालाल राजस्थानी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में पुस्तक के लेखक जगदीश पंकज को बधाई देते हुए चित्रकार अमृता शेरगिल और धावक उसेन बोल्ट का जिक्र कर कहा कि अपने रचना कर्म में निरंतर सुधार करते रहने के लिए सुविधाओं को छोड़ने पर बल दिया। दलित लेखक मलखान सिंह जिनकी कविताएं दलित साहित्य का प्रमुख दस्तावेज़ मानी जाती है, को उद्धरित करते हुए कहा कि वे भी आलोचना से परे नहीं। उन्होंने आगे लेखक से अपेक्षा करते हुए कहा कि इस संग्रह में दलित पक्ष का अभाव साफ़तौर पर दिखाई पड़ता है।

गीतकार सत्य नारायण ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि गीत विधा एक मुश्किल कार्य है जिसे जगदीश पंकज सहजता से कर लेते हैं।

कवि औरतपस्वी उपन्यास के रचनाकार सुनील पंवार ने गहन विश्लेषण करते हुए गीतकार की कल्पनाओं में सनातन संस्कृति के आधिक्य को देखते हुए रचनाकार को सनातनी परंपरा का लेखक कहकर सम्बोधित किया। उन्होंने उक्त नवगीत संग्रह पर राजनैतिक दिशाहीनता, दलित और स्त्री विमर्श से रहित होने का आरोप लगाया।

दलित साहित्य के अध्येयता बजरंग बिहारी तिवारी  ने जगदीश पंकज की विद्वता की प्रशंसा करते हुए उनके संग्रह को राजनैतिक कवित्त कहा। उन्होंने इन नवगीतों को भविष्य की संभावनाएं तलाशने वाला बताया तथा लेखक को नवगीत शैली में दलित बायोग्राफ़ी लिखने का सुझाव भी दिया।

उपन्यास द डार्केस्ट डेस्टिनी की रचयिता डॉ.राजकुमारी ‘राजसी’ ने अपने भाषण में नवगीतों के भीतर उद्देश्य में बाधा, छन्दों में संबद्धता की कमी और असमंजस की स्थिति की ओर लेखक का ध्यान आकर्षित किया। उन्होंने प्रस्तुत संग्रह में स्त्री विमर्श के अभाव और दलित कवियों की भांति रोष व प्रतिरोध की रिक्तता पर भी चिन्ता व्यक्त की।

लेखक और वेब पत्रिका ‘कृत्या’ का संपादन कर रहे बृजेश सिंह ने गीतकार को विचारधारा में न बंधकर स्वछन्द विचरने देने की पेशकश की। उन्होंने नवगीतकार की कल्पना और अंतरदृष्टि की सराहना करते हुए उन्हें अन्वेषी, जनवादी, प्रयोगवादी और प्रगतिवादी की संज्ञायें दी।

डॉ. ईश्वर सिंह तेवतिया ने चुनिंदा गीतों में निहित सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक पहलुओं पर प्रकाश डालते हुए उनके मनोवैज्ञानिक पक्ष पर अवलोकन किया।

संचालन करते हुए बलविंद्र सिंह बलि ने दस वर्ष के अल्प समय में बारह संग्रह प्रकाशित करने हेतु नवगीतकर को बधाई दी। साथ ही उन्होंने कहा कि संग्रह में सरकार, व्यवस्था, समाज, इतिहास और मिथकों को कोसा ज़रूर है किन्तु रचनाकार जगदीश पंकज समाधान या आशावादी इंगित नहीं कर पाते हैं। गीतों का शीर्षक और आरंभिक पक्तियाँ पाठक को झकझोरती अवश्य हैं लेकिन अंत तक आते-आते शब्द दिशाहीन हो जाते हैं और पाठक का मन विषाद से भर जाता है।

उपस्थित अध्यक्ष मंडल, मुख्य वक्ता, संचालक, के पी चौधरी जी एवं दर्शकों का धन्यवाद प्रकट करते हुए दलेस उपाध्यक्ष, गज़लकार पदम प्रतीक ने कहा कि वक्ताओं द्वारा की गई सभी आलोचनात्मक व सकारात्मक टिप्पणियों को सहर्ष स्वीकार करना रचनाकार का कर्तव्य है। ऐसा करने से स्वतः ही उनकी भावी रचनाओं में उच्चता आ जायेगी।

सभा में मुख्य रूप से सुनीता गौतम, साधना, प्रेमलता मुरार, संतोष कुमार, कन्हैया कुमार राय, सौरभ कुमार, अभय कुमार यादव, राम नारायण, अभिषेक पासवान, विकास कुमार, अभिनंदन, सना परवीन, निशांत कुमार, मंगल सिंह,मुहम्मद आमिर खान और निशा कुमारी के अतिरिक्त देश भर से आये चिंतक, साहित्यकारों, रंगकर्मियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भाग लिया।

 

बलविन्द्र सिंह बलि
महासचिव, दलित लेखक संघ

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डॉ. राजकुमारी ‘राजसी’ का मत 

आज हम जगदीश पंकज के नव गीत संग्रह वर्तमान टूटे कंधों पर ‘ के विषय पर परिचर्चा कर रहे हैं। प्रस्तुत गीत संग्रह में शीर्षक चयन बेहद सराहनीय है।

60 गीतों का ये संग्रह उस गुलदस्ते की भांति है जिसमें भिन्न भिन्न किस्म के पुष्प होते हैं। इसमें कुछ कविताएं जिनमें ‘वयोवृद्ध इच्छाओं के’, ‘ लगी गरजने जब बंदूके’, ‘ किस किस को अच्छे लगते हैं’, ‘ कितने व्यर्थ हो गए सपने’, ‘अंधा अंधे को ठेल रहा है’, ‘मीठी यादों का पंखा’

‘हम अपनी पहचान बताने’, ‘व्यवस्था भी बदले’ और प्रकृति के कुछ गीत काफ़ी अच्छे हैं और पठनीय भी। वैसे तो सभी पठनीय हैं किंतु मुझे ये बहुत अच्छे लगे।

‘व्यवस्था भी बदले ‘ गीत काफ़ी अच्छा गीत है। जिसमें शोषण, वंचित वर्ग और संविधान की बात पर आधारित है। प्रतिरोध का मुखर स्वर उसमें स्पष्ट दिखाई देता है।

विषय वस्तु – अंचल की यादें,  बचपन की यादें, प्रकृति प्रेम, प्रेम के मौन निमंत्रण और जहां प्रकृति आलंबन बनी है, जो अधिकतर हमें छायावादी कवियों में देखने को मिलते हैं। वैश्विक चिंताएं, समय का आंकलन, शब्दों के अंतर, अनर्थ के नए गढ़ दिए गए अर्थ, आशा-निराशा आस्था के नाम पर ढोंग, महगांई की मार से व्यथित लोग, सत्ता का, राजनीति का स्वरूप, कुछ समसामयिक मुद्दों की रचनाएँ, विश्वग्राम की परिकल्पना, विज्ञापन , बाजारीकरण ,जनता की बेबसी अवरोधों की बात, शोषण, व्यवस्था पर उठते सवाल हैं। विश्वास की, युद्ध की चिंताएं। इसकी विषय वस्तु में समाहित हैं।

अब कुछेक कविताओं पर बात करूंगी।

‘मायावी हिरण’ जिसमें बहरूपिया वर्ग की बात है कि कपटी व्यक्ति कोई भी रूप धर धोखा दे सकता है और छलने की प्रवृति आज भी है।

गीत की शुरुआत में गीतकार कहते हैं –

“मिल रही असश्वस्तियां निर्जीव सी

फिर रहे हर ओर

मायावी हिरण।

इस में वो आगे किसी उस व्यक्ति को ले आते है जो भीड़ में अकेला है और अवसाद से मन भटकाव की स्थिति में है। लेकिन फिर वो अचानक से वहां से पलायन करते दिखाई देते हैं और उस व्यक्ति को छोड़कर सरकार की परियोजना की बात करने लगते हैं।

फिर युवाओं की बात करते हैं ठीक है युवा भी सामाजिक इंसान है यहां गीत जुड़ गया है किंतु बीच में परियोजना की बात गीत के उद्देश्य में बाधा उत्पन्न कर रही है।

युवा की स्थिति का आंकलन करते हैं और कहते हैं

“जब युवा बैठा घुटन की गोद में

देखता ऊंचे

शिखर की रोशनी

एक रुख मलिन मुखड़े पर छपी

लक्ष्य से कुछ दूर

रहती चांदनी।”

कोई भी युवा घुटन में क्यों बैठेगा भला, जब लक्ष्य रूपी चांदनी उसके कुछ ही दूर होगी। उसे तो खुश होना चाहिए। न कि घुटन में। यहां भावों का तालमेल बिगड़ गया है।

फिर एक पैराग्राफ में कहते हैं कि अभाव और तनाव अब क्या कभी भी खिलती किरण नहीं दे सकते। अब क्या कभी भी अभाव और तनाव में व्यक्ति कोई खुशी नहीं दे सकता है।

एक जगह लिखा है कि

“आमजन विश्वास के परिवेश में

सत्य की झूठी कथा

पढ़ते रहे।”

यहां सवाल उठता है कि सत्य की झूठी कथा यदि है तो सत्य और झूठ में फिर अंतर क्या है? सत्य यदि झूठा है तो सत्य कहां रह जाता है।

इस पूरे गीत की विषय वस्तु में दो बीच में आई पंक्तियों की वजह से भावों में टूटन है। इसमें बीच बीच में विषय बदलते हैं और विरोधाभास भी कई स्थानों पर मिलता है।

अगला गीत

‘चरणबद्ध अवरोध खड़े’  में असमंजस की स्थिति है कि व्यक्ति करे तो क्या करे।  बात ठीक भी है वर्तमान समय ऐसा ही है । आम आदमी की अभिव्यक्ति में बहुत से कारणों से अवरोध है।

लेकिन मैं थोड़ा सा ध्यान व्याकरण की ओर दिलाना चाहूंगी। प्रस्तुत कविता में बहुत सी जगह ऐसी पंक्तियां हैं जो प्रश्न हैं और कुछ विस्मय का बोध भी कराती हैं। जिनके सामने विस्मय आदि बोधक चिह्न और प्रश्नवाचक चिन्ह होता तो भाव और अर्थ बदल जाते। लेकिन नहीं हैं तो भी अर्थ बदल गया है।

“चरणबद्ध अवरोध खड़े

क्या बोलें

कितना मुंह खोले ।”

यहां मेरे हिसाब से प्रश्नवाचक चिन्ह होना चाहिए था।

इससे गीत का अर्थ बदल गया है। ये सवाल होता तो अधिक अच्छा होता। अब गीत के भाव में साधारण और स्वीकृति का अर्थ दे रहा है।

जैसे कोई पूछ रहा है हमें क्या करना चाहिए आप ही बताओ। आप जो कहेंगे हम वही करेंगे।

ये गीत मुझे ऐसे भाव बोध का गीत लगा जैसा वो गीत जो कि अनर्थ को अर्थ मान लिखा गया। जिसका जिक्र पहले मैने किया था।

यदि गीत में ठहराव के लिए कोमें, अल्पविराम आदि चिन्ह न हो तो गीत की गेयात्मकता, लयात्मकता दोनों में अवरोध उत्पन्न होता है। जो इस गीत में भी हो रहा है।

विस्मय आदि बोधक चिन्हों का भी  कई जगह प्रयोग अनावश्यक भी हुआ है।

‘तब तक थोड़ा सुस्ता ले’ शीर्षक से एक गीत है। अच्छा गीत है और वर्तमान परिप्रेक्ष्य का गीत है। सत्ता के कार्यों और राजनीति यथार्थ बयां।

गीत 46 ‘व्यवस्था भी यह बदले’, जो वंचित वर्ग, प्रतिरोध का गीत था। उस एक गीत के बाद लेखक उस विषय को छोड़कर दोबारा विश्व, की ओर विचरण कर लेते हैं।

गीत..  ‘अतुलित दर्द कंधो पर उठाए’ में फिर विश्व चिंता बाज़ारवाद, व्यवसाय, ग्लोबल गांव की कल्पना है।

एक, सफ़र के अनुभव पर आधारित गीत है, दिव्यांग सीट के संदर्भ में, आगे गीतकार भारत माता, स्वतन्त्रता की बात करते हैं। कुल मिलाकर विभिन्न तरह के विषय इस गीत संग्रह में आपको पढ़ने को मिलेंगे।

निसंदेह ये गीत संग्रह सामान्य भाव की दृष्टि से, भाषा और शिल्प की दृष्टि से एक अच्छा गीत संग्रह है। पुरानी खासकर पौराणिक ग्रंथ के पात्रों और शब्दों पर उनकी काफी पकड़ भी दिखाई पड़ती है।

 

अब मैं इसके विमर्श पक्ष की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहूंगी।

स्त्री हूं तो स्त्री अपने पक्ष को अनदेखा कैसे कर सकती हूं। इस गीत संग्रह में आधुनिक स्त्री और स्त्रियों के साथ घटित घटनाओं से लेखक पूरी तरह कटे हुए हैं। ऐसा लगता हैं कि इस संसार में न तो स्त्रियां हैं, न उन्हें समस्याएं हैं,न वे जूझ रही हैं।स्त्री विमर्श और संघर्ष इस गीत संग्रह से दोनों पूरी तरह से गायब हैं। जब कि दलित साहित्यकार उसे नज़र अंदाज़ नहीं करते।

यदि हम दलित परम्परा की भी बात करें तो मेरी समझ के अनुसार दलित साहित्यकार और मैं खुद भी अपने स्त्री आइडल रूप में  यशोधरा, सावित्रीबाई, रामाबाई, नागेली हैं, झलकारी बाई  आदि साहित्यकार को देखते हैं।  आधुनिक युग में रजनी तिलक, का नाम भी उल्लेखनीय हैं। लेकिन लेखक ने इन स्त्रियों पर और उनकी समस्याओं पर विमर्श  गीत लिखना जरूरी ही नहीं समझा।

उन्हें यहां मिथकीय स्त्री पात्र अधिक भा गए। खासकर रामायण से संबंधित नाम ,स्थान, पात्र  और प्रसंग। इसके अतिरिक्त कुछ शीर्षक भी उन्हीं से लिए गए हैं।

     यदि मैं इस संग्रह को दलित साहित्य परम्परा की दृष्टि से देखूं तो भी मुझे विषय वस्तु और मौलिकता की दृष्टि से वैसे कोई विशेषता इसमें दिखाई नहीं पड़ी, जो मौलिकता कवल भारती की रागनियां में है, जो गीतात्मकता वरिष्ठ नवगीतकार  कुसुम वियोग की रचनाओं में है। जो

 नामदेव ढसाल, ओम प्रकाश वाल्मीकि में है या मलखान सिंह की कविताओं में जो पीड़ा की गहन अनुभूति है और मौलिकता है।

जो सूरजपाल चौहान की कविताओं में पीड़ा और क्रांति का स्तर है। वो मुझे इस गीत संग्रह में नज़र नहीं आई।

सच कहूं तो नवगीतकार जगदीश पंकज के गीतों में

मुझे नीरज गोपाल की झलक स्पष्ट दृष्टव्य हुई। इनकी नव गीत गाने की शैली बिल्कुल वैसी ही है किसी ज़माने में गोपाल नीरज जी की थी ।

चूंकि दलित साहित्यकार अपने समाज की मुखर आवाज़ होते हैं और उनसे ये वंचित समाज ये अपेक्षा भी करता हैं कि वो समस्याओं को लिखें और लोगों तक पहुंचाए ताकि उनका निवारण हो। इस संग्रह में कुछेक गीत को छोड़ दें तो वो विमर्श के साथ इस समाज के लिए आक्रोश और आवाज़ दोनों दबे दिखते हैं। और  न के बराबर भी।

निष्कर्ष

निष्कर्ष  रूप में यही कहूंगी कि जिस विधा में वंचित वर्ग ,स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श को विषय वस्तु में शामिल ही न किया जाए या आटे में नमक सी प्रयोग हो, वो रचना  दलित विमर्श में तो आ ही नहीं सकती।

इन्हीं शब्दों के साथ मैं अपने वक्तव्य को समाप्त करती हूं।

डॉ. राजकुमारी ‘राजसी’

असिस्टेंट प्रोफ़ेसर दिल्ली विश्वविद्यालय 

rgiroh76@gmail.com 

सुनील पंवार का मत 

दलित लेखक संघ और जनवादी लेखक संघ

जैसा कि हम सब जानते हैं कि आज का कार्यक्रम दो लेखक संघों के सयुंक्त तत्वावधान में आयोजिय किया जा रहा है। एक है दलित लेखक संघ और दूसरा है जनवादी लेखक संघ।

प्रकृति का शुक्र है, कहीं तो दो लोग मिलकर काम कर रहे हैं। वरना लोग हमेशा अलग होने की ही जुगत में लगे रहते हैं।

दोनों ही संघों का मुख्य उद्देश्य समाज और व्यवस्थाओं के विरुद्ध क़लम को चलाना रहा है। दलित और जनवादी लेखक संघ में कुछ समानताएं है। मसलन मजलूमों की पीड़ाओं को व्यक्त करना, अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाना वगैरह वगैरह। देखने में भले ही ये एक जैसे नज़र आते हों लेकिन इनमें पर्याप्त अंतर भी है।

दलित लेखक जहां सामाजिक असमानता, जातीय भेदभाव, उपेक्षाओं के विरुद्ध न्याय की बात करता है, वहीं जनवादी लेखक राजनीतिक मसलों, समान अवसरों व संसाधनों के विभाजन की बात करता है। सीधे शब्दों में कहूँ तो यह वामपंथी विचारधारा का एक रूप प्रतीत होता है।

दलित जहां केवल प्रतिरोध की बात करता है वहीं जनवादी प्रतिरोध के साथ प्रतिशोध की भी बात करता है। दलित लेखक जनवादी तो हो सकता है लेकिन जनवादी दलित हो यह आवश्यक नहीं है। इस प्रकार दो सदृश संगठन एक होकर भी पर्याप्त अंतर लिए हुए हैं।

लेखक परिचय और विचारधारा

किसी भी लेखक की किताब पढ़ने से पहले जरूरी है लेखक से परिचित होना। पुस्तक के कवरपेज पर दिए गए परिचय को पढ़ा तो पता चला कि लेखक काफ़ी वरिष्ठ हैं और साहित्य में इनका अच्छा खासा नाम है। जिस विधा में प्रस्तुत पुस्तक लिखी गई है उसी विधा में इनकी लगभग चार कृतियां पूर्व प्रकाशित हो चुकी है। और यह इस बात का प्रबल प्रमाण है कि इस नई विधा में लेखक नौसिखिया या अनुभवहीन तो बिल्कुल नहीं है।

शीर्षक और भूमिका

प्रस्तुत पुस्तक का शीर्षक है ‘वर्तमान टूटे कंधों पर’ ये टूटे हुए कंधे किसके हैं? क्यों है? अगर ये टूटे हुए कंधे अवाम के हैं तो इन टूटे कंधों को मजबूती कौन देगा? ज़ाहिर सी बात है यह सब प्रश्न पाठक के मस्तिष्क में उठ रहे होंगे जिनके उत्तर भी वह इस पुस्तक से ही पाना चाहेगा।

व्याकरण की बात न करते हुए मैं केवल भावों की बात करूंगा। और भाव यह कहते हैं कि इस पुस्तक में लेखक ने प्रकृति एवं प्रेम, आशाएं, निराशाएं, वर्तमान, अतीत, पीड़ाएँ, कुंठाएँ, राजनीति, धर्म, बचपन की यादें, युद्ध की विभीषिका, जैसे समस्त मानवीय  विषयों व संवेदनाओं  को सहजता से स्थान दिया है।

लेखक अपने अभिमत में लिखते हैं कि- “श्रेष्ठता के दंभ में गर्वित हुंकार लगाता वर्चस्वशाली वर्ग जहाँ अपने वर्चस्व को स्थायी बनाये रखने में सलंग्न है वहीं प्रतिरोध के स्वर भी लगातार उठते रहे हैं।”

यह जो प्रतिरोध है यही जनवाद एवं दलित वाद का मुखर स्वर है।

नवगीत

नवगीत संग्रह का आरंभ ‘किसको सांत्वना दे अब’ गीत से होता है।  जिसका एक अंतरा इस प्रकार है-

“जिसने अपना खून दिया है

उपवन की खुशहाली को

लोग लगे हैं धमकाने में

उस बेचारे माली को।।”

ऐसा लगता है जैसे गीतकार ने वर्तमान परिदृश्य को कागज़ पर उकेर दिया है। लयबद्ध यथार्थपूर्ण पंक्तियों व ऊर्जा के साथ लिखा गया यह गीत वर्तमान स्थिति का भली भांति चित्रण करता है। गीत में एक गति है जो पाठक को बांधे रखती है। लेकिन आगे चलकर कुछ गीतों में यह प्रवाह कहीं-कहीं टूटने लगता है और पाठक एक बार पुनः अतीत यानी कि आरंभ की ओर लौटने लगता है।

अतीत से याद आया पुस्तक का शीर्षक है ‘वर्तमान टूटे कंधों पर’

एक गीत में एक पंक्ति लिखी है- “नींव के खंभे हिले हैं।”  यह शब्द मुझे काफ़ी अटपटा लगा। नींव के पत्थर तो हो सकते हैं लेकिन नींव के खंभे कुछ अजीब सा लगा।

नींव पर टिके स्तंभ तो अवश्य हिल गए होंगे। भाषा की दृष्टि से यह शब्द असंगत प्रतीत होता है।

इसी प्रकार एक गीत “दिखने और दिखाने में” गीतकार ने हर अन्तरे में दो-दो शब्दों के मध्य के भेद बताए हैं। जैसे – दिखने और दिखाने, चुकने और चूकने, आह्लाद और अवसाद, शील और शैतानी, बिकने और बेचने, जाति-प्रजाति, जलने और जलाने। लेखक ने इन शब्दों के अंतर स्पष्ट किए हैं लेकिन एक अन्तरे में लेखक को कोई शब्द नहीं मिला जिससे पूरे गीत की लय बिगड़ी नज़र आने लगी।

  1. दिखने और दिखाने में जितना अंतर

चुकने और चूकने में उससे ज्यादा

 

2. शील और शैतानी में जितना अंतर

बिकने बेचने में उससे ज्यादा

 

3. जाति-प्रजाति नियामक में जितना अंतर

जलने और जलाने में उससे ज्यादा

 

4. आह्लादों अवसादों में जितना अंतर

टूट रही मर्यादा उससे ज्यादा

इस चौथे अन्तरे में भी दो शब्द होने चाहिए थे जो नहीं है।

इन शब्दों के भेद बताने के पीछे गीतकार का क्या उद्देश्य है यह भी मुझे कहीं स्पष्ट नज़र नहीं आया।

एक गीत “कितना लिया कितना दिया” में गीतकार ने वंचित विषयों से लेकर संघर्ष, संताप, कुंठाएँ, कटुता को एक माला में पिरोकर पेश किया है तथा बहुत ही सकारात्मक सोच के साथ गीत का अंत किया है।

इसी प्रकार एक गीत है “लगी गरजने बम्ब बंदूकें

हथियारों की होड़ में, शक्ति एवं वर्चस्व की लड़ाई में विध्वंसकारी युद्धों ने मानवता एवं प्रकृति को जो क्षति पहुंचाई है उसे गीतकार ने बहुत ही सहज एवं सरल शब्दों में वर्णित किया है। यदि यह कहूँ कि इस गीत संग्रह का सबसे बेहतर एवं निष्कर्ष वाला कोई गीत है तो वह यही है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं चाहिए।

इसी प्रकार “हम परिंदे हैं” गीत न केवल वर्तमान को दर्शाता हैं बल्कि संघर्ष और सफलता का बखान भी करता है।

“सच ही कहा, कहेंगी सच ही” गीत भी प्रतिबद्धता को प्रमाणित करता एक बेहतरीन गीत है। मेरी दृष्टि में ऐसे बहुत कम गीत आये जो निष्कर्ष तक पहुंचकर सकारात्मक परिणाम को दर्शाते हों।

आमतौर पर होता यह है कि लेखक जब लिख रहा होता है तब वह केवल एक लेखक होता है जो कल्पनाओं एवं भावों की नाव पर सवार होकर बहता चला जाता है। उसके पास पाठक की दृष्टि नहीं होती।

जितने साहित्यकारो को मैं आज तक पढ़ पाया हूँ उन सभी दलित साहित्यकारों में मुझे एक बात कॉमन (समान) लगी। और वह यह कि उनके साहित्य में अवाम की वेदनाएँ, कुंठाएँ, पीड़ाएँ , व्यथा , संघर्ष और समस्याएं भरी पड़ी हैं। वही समस्याएं जो आज़ादी से पहले भी थी और बाद में भी है। किताबें भर-भरकर पाठकों के समक्ष समस्याओं को परोसा गया किंतु समाधान? समाधान की बात आते ही लेखक की कलम मौन धारण कर लेती है।

हर एक लेखक चाहे दलित हो या जनवादी। दशा तो सबने बयां कर दी लेकिन दिशा के प्रश्न अनुत्तरित ही रह गए। प्रस्तुत गीत संग्रह में भी यही बात नज़र आती है। इक्के दुक्के गीतों को छोड़ दें तो कोई भी गीत दिशा प्रदान करता नजर नहीं आता।

किस किसको विचलित करते हैं।” गीत में गीतकार सीवर से निकले सफाईकर्मियों के शवों की बात करते हैं। इस गीत में मलिन बस्तियों का जीवंत चित्रण किया है। लेकिन यहां भी वही बात सामने आती है कि दशा का वर्णन तो बहुत अच्छे से किया है किंतु दिशा पूर्णतः नदारद है।

इसी प्रकार “गिरी निबोली, टपकी जामुन” गीत में भी गीतकार ने प्रकृति, निर्धन, किसान की पीड़ाओं व जर्जरित आस्थाओं का बिना किसी समाधान के शानदार  चित्रण कर दिया है।

कहीं-कहीं गीतकार की कलम विरोधाभास को जन्म देती नज़र आती है। जैसे:- एक गीत में गीतकार कहते हैं कि

चलते रहो बचाते बचते प्रश्नों से

जिनसे जिम्मेदार लोग असहज होते

उन मुद्दों को उठा ताक पर रख देना

जिनको सुनकर बड़े लोग आपा खोते

मिलकर उछलो-कूदो खुशी मनाओ सब

शिकवे-गिले ठिठोली में अब ढलने दो।।

यहाँ गीतकार क्या संदेश देना चाहते हैं? प्रश्नों से खुद को बचाइए और खुशी मनाइए। यदि ऐसा है तो फिर प्रतिरोध कैसा? संघर्ष कैसा? विमर्श कैसा?

इसी प्रकार एक अन्य गीत “लगे सजाने वर्तमान” में अंतिम अंतरा कहता है सच से पर्दा उठेगा लेकिन प्रथम अंतरा कहता है कि संवेदन आहत होगा। एक ही समय में दो अलग अलग दृष्टिकोण लेखक की लेखनी में विरोधाभास उतपन्न करता है। जबकि इस गीत का अंत एक सकारात्मक सन्देश के साथ हुआ है।

शीर्षक गीत

“वर्तमान टूटे कंधों पर बोझ ढो रहा है अतीत का

हम भविष्य के लिए समर्पित निष्ठाओं को आंक रहे हैं।।”

गीतकार गीत का आरंभ वर्तमान से करते हैं, भविष्य के लिए निष्ठाओं को आंकने की बात करते हैं, लेकिन फिर अतीत की यात्रा पर निकल पड़ते हैं। थाली ताली से होते हुए रामायण युग में प्रवेश कर जाते हैं। शम्बूक के रामराज्य का प्रश्न तथा सीता के वनवास पर भी प्रश्न उठाते हैं। कहीं कहीं ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक रामायण युग से बहुत प्रभावित है। या सनातन संस्कृति में रचे बसे नज़र आते हैं।

सीता को वनवासा देने पर प्रश्न, काशी की गलियाँ, कण कण में शिव शंकर, भोलेनाथ, श्रद्धा, आरती, विश्वनाथ, कुंती पुत्र, पांडव, चित्रकूट, साकेत, पूजाघर, द्रोण, सूर्यपुत्र, करण, मायावी मृग, रामराज्य जैसे धार्मिक शब्दों का उपयोग करना हो या फिर सपनों के साकेत की कल्पना करना। यह सब लेखक को सनातन की ओर खींच लेते हैं।

गीतकार कहते हैं-

“तिनके जोड़ बनाओ फिर से सपनों का साकेत बंधुवर

अब जो होगा अपना होगा, पर्णकुटी भी पंचवटी है

चित्रकूट भी राजमहल है बाधा कितनी विकट हटी है।

नहीं अयाचित यह वनवासा, अपना नया निकेत बंधुवर।”

यह एक लयबद्ध गीत है जिसका उच्चारण बेहद कर्णप्रिय है। लेकिन प्रश्न यहाँ यह उठता है कि लेखक को साकेत ही क्यों बनाना है?

साकेत यानी अयोध्या। रामराज्य।

चित्रकूट जहां राम लक्ष्मण और सीता वनवासा के दैरान रहे।

यहाँ यह प्रश्न उठता है कि क्या लेखक रामराज्य की परिकल्पना करना चाहते हैं? लेखक साकेत के स्थान पर रविदास के बेगमपुरा की परिकल्पना क्यों नहीं करते? जहां सब जन के लिए अन्न, समता और समानता हो।

लेखक चित्रकूट के स्थान पर मलिन बस्तियों का ज़िक्र क्यों नहीं करते? लेखक के गीतों में मलिन बस्तियों का चित्रण आता है किंतु सपने आता है साकेत।

और इस प्रकार लेखक न जनवादी नज़र आते हैं न दलित। वे सनातन रंग में रंग जाते हैं।

लेखक सीता के वनवास दिए जाने पर प्रश्न उठाते हैं लेकिन उस स्त्री के लिए प्रश्न नहीं उठाते जो अपने ही गाँव के बाहर पिछले 32 सालों से वनवास काट रही है। राजस्थान की भंवरी देवी इसका जीता जागता उदाहरण है। अर्धरात्रि को पेट्रोल से दाह संस्कार कर दिए जाने वाली दुष्कर्म पीड़िता के विषय में भी गीत मौन रह जाते हैं। सीता और कुंती को छोड़ दें तो यह संग्रह स्त्री विमर्श की दृष्टि से बाँझ नज़र आता है।

गीतकार अपने अभिमत में लिखते हैं-

“मेरे विश्वास है कि सारे दरवाज़े कभी बन्द नहीं रह सकते अतः साहित्यकार को समय के उपलब्ध दरवाज़े पर दस्तक देने की अपनी भूमिका को निभाते रहना चाहिए।”

बहुत ही सधी हुई बात गीतकार ने कही है। साहित्यकार की यह नैतिक जिम्मेदारी है कि वह समय के दरवाज़े को खटखटाये लेकिन दरवाज़े पर दस्तक देने और उस दरवाज़े के खुल जाने पर वह समाज को क्या दे? यह भी निश्चित होना चाहिए। वह गड़े मुर्दे उखाड़कर अतीत के घावों को ताज़ा करे या समाधान की मरहम लगा उनका उपचार करे, यह लेखक की कल्पनाशीलता एवं विवेक पर निर्भर करता है।

होना यह चाहिए कि लेखक दरवाज़े को इस आशय से खटखटाये की उस ओर नई राह खुले, अवसर मिले, और समस्याओं का समाधान भी मिले।

ज्यादातर लेखकों ने जब भी दरवाज़े पर दस्तक दी तो केवल अतीत को ही देखा, वर्तमान और भविष्य को नहीं। लेखक युगदृष्टा होता है। अपनी दूरदर्शी कल्पनाओं से वह उन सपनों को भी देख लेता है जिनका कोई अस्तित्व नहीं होता। ऐसे में लेखक को चाहिए कि इन कुंठाओ भरे जीवन में वह समाज को भविष्य की योजनाओं व सपनों को पूर्ण करने हेतु सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ मार्गदर्शन करें।

एक गीत है –“इस घुटन के पार भी आकाश है”

“इस घुटन के पार भी आकाश है

बस जरा बाहर निकल कर देखिए”

इस गीत में गीतकार घुटन भरे जीवन से उभरने का मार्ग बताते हुए प्रतीत होते हैं। असल मायनों में यही एक गीत मेरी दृष्टि में आया जिसमें लेखक न केवल वर्तमान बल्कि भविष्य की भी बात करते नज़र आते हैं। इस गीत में कुंठाओं, व्यथाओं, वेदनाओं को न केवल चित्रित किया गया है बल्कि उनके पर्याप्त समाधान भी बताएं हैं।

सभी नवगीतों पर यदि बात की जाए तो लगभग गीत वामपंथी विचारधारा से प्रेरित होकर लिखे गए हैं। राजनैतिक प्रतिरोध है, पीड़ाएँ हैं, व्यथा है लेकिन समाधान नदारद है।

लगभग हर गीत में लेखक का राजनीतिक दृष्टिकोण झलकता है। अपने गीतों में लेखक वर्तमान की ओट में बात केवल अतीत की ही करते नज़र आते हैं। पूरे गीत संग्रह में कहीं भी भविष्य की भावी योजनाओं व प्रचलित समस्याओं का समाधान दृष्टिगोचर नहीं होता है।

विमर्श:-

विमर्श की यदि बात करें तो इस संग्रह को किसी एक विमर्श का नाम देना उचित नहीं है। चूंकि इसमें सभी प्रकार के मसलों व मानवीय संवेदनाओं को प्रमुखता से स्थान दिया गया है। मैं पूर्व में भी कह चुका हूं कि स्त्री विमर्श के रूप में तो यह संग्रह पूर्णतः बाँझ नज़र आता है। हाँ इतना कहा जा सकता है कि यह जनवाद से प्रभावित साहित्य है और इसे जनवादी विमर्श कहना ही अधिक उचित होगा। हालांकि वंचितों एवं उपेक्षितों के विषयों को गीतों में अवश्य वर्णित गया है फिर भी इनमें दलित भावभूमि नज़र नहीं आती इसलिए इसे दलित विमर्श से भिन्न रखा जाना उचित होगा

पुस्तक के बारे में

  • प्रकाशक से पुस्तक की टाइप सेटिंग करने में गलती हुई है।
  • गीतों की पंक्तियों को अच्छे से सेटअप किया जाना चाहिए। पंक्तियों को सही से सेट नहीं करने की वजह से पाठक अपनी लय खो देता है और गीतों में पाठक अपने आप को अनुभूत नही कर पाता।

हो सकता है मुझ पर यह आरोप लगे कि मैं कल का लड़का साहित्य का अनुभव ही क्या रखता हूँ। ये भी कहा जा सकता है कि लेखक जो कहना चाहता है पाठक ने उसे इस वे में लिया ही नहीं है। लेखक कुछ और कहना चाहता है और पाठक कुछ और समझ रहा है। अगर ऐसा है तो फिर यह और भी आलोचना की बात है। क्योंकि मेरा मानना है कि लेखक जिस भाव से लिखता है और पाठक उसे उसी भाव में समझता है या अनुभव करता है तो लेखक का लेखन सार्थक है अन्यथा इसका कोई अर्थ नहीं है।

दोनों लेखक संघो के सयुंक्त रूप से आयोजित इस कार्यक्रम में मुझे वक्ता के रूप में आमंत्रित करने के लिए हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ। और साथ ही नवगीत के वरिष्ठ लेखक को भविष्य के लिए शुभकामनाएं प्रेषित करता हूँ।

अब अंत में मैं इसी पुस्तक से चंद बेहद खूबसूरत पंक्तियों के साथ अपनी वाणी को विराम देता हूँ कि-

“आइये कुछ देर साझापन लिए

अब चलें कुछ दूर हंसते हुए

आज को हर सांस में जीते हुए

आत्मिक उन्माद में फंसते हुए

हास के परिहास के मानक बदल

उम्र को ठेंगा स्वयं दिखलाइये।”

 

बहुत बहुत आभार

सुनील पंवार 

युवा लेखक राजस्थान 

sunil.rawatsar@gmail.com 

 

कार्यक्रम की कुछ झलकियाँ 
तपस्वी
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