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द वर्ड्स ब्रिज में आज की कहानी-आख़री कॉल

 

द वर्ड्स ब्रिज 

संपादक- डॉ. राजकुमारी राजसी                    devsakshipublication@gmail.com 

 

कहानी- आख़री कॉल
कहानीकार- सुनील पंवार
निवासी- रावतसर
आख़री कॉल

“ट्रीन….ट्रीन….ट्रीन…ट्रीन” अचानक बजी फ़ोन की घण्टी ने सारे घर को सिर पर उठा लिया।
“हेलो! सिद्धार्थ बोल रहा हूँ।”
“मैं पुलिस इंस्पेक्टर विक्रम बोल रहा हूँ।” दूसरी तरफ़ से एक खुरदरी आवाज़ उभरी।
“जी! कहिये!”
“क्या ‘सी, ब्लॉक-13’ आपकी प्रोपर्टी है?”
“जी हाँ। पर…बात क्या है?” उसकी भौहें सिकुड़ गई।
“कौन रहता है यहाँ? क्या आपने ये बिल्डिंग किराये पर दी है?” उसने फिर सवाल किया।
“नहीं! यहाँ तो मेरा दोस्त रहता है, पर….बात क्या है इंस्पेक्टर?”
“यहाँ एक लाश मिली है।” उसने धीमे स्वर में कहा।
“जी…..! ला….लाश? क…क…किसकी?” उसकी आवाज़ हलक में ही दब गई।
“किसी बीस-पच्चीस साल के युवक की है; आप जितनी जल्दी हो सके यहाँ आ जाइये।” उसने अपनी बात पूरी की और अपनी तरफ़ से फ़ोन काट दिया। सिद्धार्थ रिसीवर को कान से लगाये स्तब्ध, बुत बना खड़ा रहा। विस्मय से उसकी आँखे फट गई और माथे पर पसीने की मोटी-मोटी बूंदें उभरने लगी।

कुछ दिन पूर्व

तेज़ हवाओं के साथ बारिश फिर शुरू हो गई। हवा के वेग से खिड़की खुल गई, जिससे बाहर का नज़ारा और भी साफ़ नज़र आने लगा। प्रचंड हवा के झोंको से घर के आगे लगे पेड़ धरती को चूमने का प्रयत्न कर रहे थे, ऐसा लग रहा था, जैसे अपनी जड़ों को पनाह देने के लिए ज़मीन का शुक्रिया अदा कर रहे थे। आसमान से चमकती बिजली से ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वह इस खूबसूरत दृश्य की तस्वीरें खींचकर इस पल को कैद करना चाहती हो। अँधेरा गहराने लगा था और बिजली भी गुल हो चुकी थी। खिड़की से आती हल्की रोशनी से कमरे में सब कुछ साफ़ नज़र आ रहा था।

बीस-पच्चीस साल का एक तरुण खिड़की के पास खड़ा उस पल का भरपूर आनन्द उठा रहा था और उसके दिमाग़ में न जाने कितनी कहानियां चल रही थीं। बारिश की हल्की बौछारें जब उसके चेहरे पर पड़ती तो उसकी मुस्कान किसी बच्चे की मानिंद खिल उठती। वह खिड़की से बाहर अपनी हथेलियों को निकालकर पानी की बूंदों से अठखेलियाँ कर रहा था और अपनी ही कल्पनाओं की दुनियाँ में पूरी तरह से लीन हो चुका था कि तभी, टेबल पर रखे फ़ोन की घण्टी घनघना उठी।

“हेलो! सन्नी बोल रहा हूँ सी, ब्लॉक-13 से।” उसने रिसीवर उठाकर कहा।
सामने से कोई आवाज़ नहीं सुनाई दी।
“हेलो! सन्नी बोल रहा हूँ; सी, ब्लॉक-13 से। कौन बात कर रहा है?” उसने फिर से दोहराया।
“हेलो!… आ…आप सी, ब्लॉक-13 से बोल रहे हैं?” एक सुरीली जनाना आवाज़ उसके कानों में पड़ी।
“जी हाँ। आपको किससे बात करनी है?”
“अ…अ…दरअसल मुझे कहीं और फ़ोन लगाना था..लगता है रॉंग नम्बर लग गया है, माफ़ी चाहूँगी।” उसने अटकते हुए कहा।
“कोई बात नहीं! आपका शुक्रिया!” फ़ोन डिस्कनेक्ट हो गया। वह युवक फिर खिड़की के पास जाकर खड़ा हो गया और बरसात का आनन्द उठाने लगा। धीरे-धीरे गहराते हुए अँधेरे की वज़ह से खिड़की के बाहर का नज़ारा धुँधलाने लगा। वह खिड़की से हटा और कुर्सी पर बैठ गया। अचानक फ़ोन की घण्टी फिर बज उठी।
“हेलो! सन्नी बोल रहा हूँ; सी, ब्लॉक-13 से ।”
“हेलो! मैं…… मैं!” उसकी आवाज़ हलक में ही अटक गई।
“आपने तो अभी कुछ देर पहले भी कॉल किया था न?”
“जी!..जी हाँ! वो दरअसल….मुझे लगा कि…..।” उसने अपनी बात अधूरी ही छोड़ दी।
“कि!…..कि क्या?”
“अ… अ…. कि..कि आपकी आवाज़ बहुत अच्छी है।”
“ओह! शुक्रिया! पर….इससे क्या?” युवक ने हल्की मुस्कान बिखेरते हुए सवाल किया।
“अ… मुझे लगा कि…. कि आपसे बात करनी चाहिये।”
“ओह! ये तो अच्छी बात है, पर आप क्या बात करेंगीं मुझसे?” वो हल्का सा हँस दिया।
“कुछ भी।”
“कुछ भी? ये भला क्या बात हुई?”
“आपकी आवाज़ अच्छी है; आप कुछ भी बात कीजियेगा तो अच्छी ही लगेगी।”
“ये बात है? तो चलिये! कीजिये बात, जो भी करनी है।”
“जी! आपका नाम तो मैं जानती हूँ।” उसने हल्की हँसी
के साथ अपनी बात शुरू की।
“आप मेरा नाम जानती हैं? कैसे?” उसके प्रश्न में आश्चर्य था।
“आपने ही तो बताया अभी-अभी। सन्नी बोल रहा हूँ सी, ब्लॉक-13 से।” वो हँस पड़ी। उसकी खनकदार हँसी ने उसके कानों में मिसरी घोल दी।
“वैसे…..! आप करते क्या हैं?” उसकी सुरीली आवाज़ ने एक और सवाल दाग दिया।
“वही जो देश के अस्सी प्रतिशत युवक करते हैं।”
“अरे! ऐसा क्या करते हैं आप?” उसने स्वर में हैरत थी।
“काम की तलाश।”
“ओह!” वो हँस पड़ी।
“जी! बेरोजगार हूँ, पर बेकार नहीं हूँ।”
“क्या मतलब?”
“मतलब ये कि काम कुछ भी नहीं करता, जिससे पैसे मिलते हों और बेकार इसलिए नहीं हूँ कि कुछ करता नहीं हूँ।” उसने घुमावदार प्रतिउत्तर दिया।
“पहेलियां बुझाना छोड़िये और साफ़- साफ़ बताइये।”
“लिखता हूँ सारा दिन। एक नाक़ाबिल लेखक हूँ। छोटी-छोटी कहानियाँ लिखता हूँ।”
“अरे वाह! मुझे कहानियाँ पढ़ना बहुत पसंद है।”
“सच्च? मतलब कि मुझे एक पाठक मिल गई है?” वो जोर से हँस पड़ा।
“आपके साथ और कौन-कौन रहता है?” उसने बातों के सिलसिले को आगे बढ़ाया।
“जी! मेरे इस घर में एक बिस्तर, एक टेबल और मेरी डायरी, क़लम के अलावा ये फ़ोन रहता है।”
“मतलब…आप अकेले रहतें है?”
“जी..हाँ! ये घर भी मेरे दोस्त का है, उसी ने पनाह दी है मुझे। जब कभी मेरी किताब छपेगी और चार पैसे आ जाएंगे तो अपना घर बना लूँगा।”
“आमीन! आपकी तमन्ना जल्दी पूरी हो ऐसी दुआ करेंगे हम। वैसे…आप इंसान बहुत दिलचस्प हैं।”
“ओह! शुक्रिया।”
“अगर आपको ऐतराज़ न हो तो क्या मैं आपको कल कॉल कर सकती हूँ?” एक और सवाल।
“हाँ! क्यों नहीं!”
“ठीक है मैं आपको कल शाम को कॉल करूँगी और आपकी लिखी एक कहानी आपकी ज़ुबानी सुनूँगी। अभी के लिए शब-ए-ख़ैर।”
“मुझे पाठक चाहिए थी लेकिन आप तो श्रोता निकली। फिर भी मुझे खुशी होगी। मैं आपके कॉल का इंतज़ार करूँगा।” कहकर उसने फ़ोन डिस्कनेक्ट कर दिया।

घर में कोई घड़ी नहीं थी, सो समय का अंदाज़ा ढ़लते हुए सूरज और गहराते हुए अँधेरे से ही लगाया जा सकता था। बादलों के छोटे-छोटे टुकड़े आपस में जुड़ने लगे थे और काली घटा को आकार देने लगे। दिन लगभग ढलने ही वाला था और खिड़की से आती हुई रोशनी भी आँखों से ओझल होने लगी थी। वह खिड़की से हटा और उसने कमरे की बत्ती जला दी। पूरा कमरा दूधिया रोशनी में स्नात हो गया। वह चुपचाप आकर कुर्सी पर बैठ गया और टेबल पर पड़े फ़ोन की तरफ़ देखने लगा। कमरे में छाया सन्नाटा बहुत भयानक था।

“ट्रीन…. ट्रीन…. ट्रीन….ट्रीन” की आवाज़ ने सन्नी को भयंकर रूप से झकझोर दिया। उसने अपने आप को संभालते हुए रिसीवर उठाया और बोला।
“हेलो! सी ब्लॉक-13 से सन्नी बोल रहा हूँ।”
“ओह! हाय!…आप इतने घबराए हुए क्यों है?” वो हल्की सी हँसी के साथ बोली।
“वो..आपके फ़ोन की घण्टी की वज़ह से थोड़ा हड़बड़ा गया।”
“कैसे है आप? क्या कर रहे थे अभी?”
जी…थोड़ा बिजी था।”
“बिजी?…किसमें?”
“आपके फ़ोन के इंतज़ार में।” वो मुस्कुरा दिया।
“ओह! आप भी न! बातें बनाने में तो शायद ही कोई आपका सानी होगा, फिर भी माफ़ी चाहती हूँ जो आपसे इंतज़ार करवाया।” उसने खनकदार हँसी के साथ जवाब दिया।
“चलिये! शुरू कीजिए कोई कहानी। मैं बेसब्र हूँ आपकी ज़ुबाँ से सुनने के लिए।” उसने शरारत भरे लहज़े में कहा।
“अच्छा ठीक है मैं अपनी डायरी उठा लेता हूँ….,हाँ…हाँ तो शुरू करते हैं एक कहानी। कहानी का शीर्षक है,.. ‘आख़री कॉल।’

कुछ देर ख़ामोशी छायी रही। दोनों तरफ़ से कोई क्रिया-प्रतिक्रिया नहीं हुई।
“माशाअल्लाह! आप तो बहुत अच्छा लिखते हैं। सच कहूँ तो मैं आपकी आवाज़ और कहानी में इस क़दर खो गई कि इसके अंत होने के बाद भी मुझे लगा जैसे आपको सुनती रहूँ!” अकस्मात ही उसके धीमे स्वर ने उन दोनों के दरमियान पसरी ख़ामोशी को भंग कर दिया।
“शुक्रिया!” वो महज़ इतना ही कह पाया।
“मुझे अफ़सोस है कि मैं आपसे पहले नहीं मिल पायी।”
“पर…हम अभी मिले ही कहाँ हैं?”
“सब्र रखिये ज़नाब! कभी मिल भी जायेंगे।”
“कब?” उसका लहज़ा उत्सुकता से भरा हुआ था।
“जब आपकी किताब छपेगी तब! हम आपके ऑटोग्राफ़ के साथ आपकी किताब लेने आयेंगे, लेकिन इसके लिए आपको हमें हर रोज एक कहानी सुनानी पड़ेगी, अगर मंजूर हो तो बोलिये।” वो फिर हँसी दी।
“अरे! क्यों नहीं। आपका शुक्रिया! मुझे खुशी होगी।” वो हल्का सा मुस्कुरा दिया।
“अच्छा ठीक है; अब आप आराम कीजिये और अपना ख़्याल रखियेगा। शब-ए-ख़ैर।” फ़ोन डिस्कनेक्ट हो गया।

हर शाम एक नयी कहानी के साथ अनवरत बातों का  सिलसिला चलता रहा।  न चेहरा, न आकार और न ही कोई रूप था! अगर कुछ था तो वो थीं आवाज़। वे बिना एक-दूजे से मिले अपनी कल्पनाओं से ही एक-दूसरे की छवि बुनने में लगे थे। वह दिनभर बस इंतज़ार ही करता रहता और वो भी शाम होने का। हर रोज़ आने वाली वे फ़ोन कॉल्स उसकी ज़िंदगी का अहम हिस्सा बन चुकी थीं।
एक शाम जब सन्नी कहानी सुनाने वाला था तो उससे पहले ही उसने एक सवाल पूछ लिया।
“एक बात बताइये! हम इतने दिनों से एक-दूसरे से बात कर रहे हैं, लेकिन…! आपने अब तक अपना नाम नहीं बताया मुझे।”
“आपने पूछा ही नहीं।” वो शरारती हँसी के साथ बोली।
“तो अब बता दीजिए!”
“जी! ज़रूर। मेरा नाम… वाणी है।”
“अरे वाह! आपका नाम तो आपकी आवाज़ की तरह वाक़ई बहुत खूबसूरत है।”
“शुक्रिया!”
“अच्छा एक सवाल पूछें आपसे?” वाणी ने औपचारिक होते हुए पूछा।
“आपका काम ही सवाल करना है, फिर परमिशन क्यों?” वह हँस दिया।
“अच्छा! ये बताइये आपके शौक क्या है?” वाणी ने मासूम सा सवाल किया।।
“क्यों? क्या करेंगीं जानकर?”
“पहले बताइये तो सही!” वाणी ने नटखट बच्ची की तरह ज़िद्द की।
“लिखने का… और क्या? सारा दिन लिखता रहता हूँ, इस उम्मीद में कि कभी किताब छपेगी और मेरा भी नाम होगा।”
“अरे! ज़रूर छपेगी। आप लिखते ही इतना अच्छा है। मैं आपके लिए एक डायरी और क़लम ख़रीदूँगी। ये हमारी तरफ़ से आपके लिए शायद सबसे अच्छा तोहफ़ा होगा।”
“अरे! सच? शुक्रिया! पर इसकी क्या ज़रूरत है?”
“जब मैं आपसे मिलूँगी तब अपने हाथ से आपको ये तोहफ़ा दूँगी।” मुस्कुराते हुए उसने अपनी बात पूरी की।

रात और गहरी होने लगी थी। बिज़ली भी कड़कने लगी थी और तेज़ हवाओं ने दरवाज़े पर दस्तक देना शुरू कर दिया था, मगर वे सारे जहाँ से बेख़बर सिर्फ़ अपनी बातों में ही मसरूफ थे।
कहानी पूरी होने के बाद भी उन दोनों के बीच काफ़ी समय तक बातें होतीं रही; शायद वे उस दिन बहुत आगे तक निकल जाना चाहते थे। भावनाओं का सागर पूरे उफ़ान पर था और इन लहरों को रोकना किनारों के बस में तो बिल्कुल भी नहीं था। सन्नी कुछ देर चुप रहने के बाद सहसा बोला पड़ा,- “मैं आपके बारे में कुछ भी तो नहीं जानता। अगर मेरे दोस्त ने मुझे इस घर से निकाल दिया तो मैं आपसे बात कैसे करूँगा? कहाँ ढूँढूगा आपको?” पहली बार उसके स्वर में इतनी गम्भीरता थी।
“जिस दिन आपकी डायरी की आख़री कहानी सुनूँगी; उसी दिन मैं आपसे मिलने भी आऊँगी और अपना नम्बर भी दूँगी, बस इंतज़ार कीजिये उस दिन का।” वाणी ने उसकी बेसब्री की आग और हवा दे दी।
“पर…! आप तो कह रही थीं कि किताब छपने पर मिलेंगी!”
“इंसानी स्वभाव है ज़नाब! बदलते वक़्त थोड़े ही लगता है। मैं भी आपसे मिलने को बेताब हूँ, मेरा यकीन कीजिये।” उसने बेहद रूमानी अंदाज़ में कहा और फिर खिलखिलाकर हँस दी।
“सच?”
“हाँ!”
“तो फिर यक़ीन कीजिये वो दिन बहुत जल्द आने वाला है। वैसे भी अब तो कहानियाँ बची ही कितनी है।” वह हल्का सा मुस्कुराया और डायरी बन्द कर दी।

आख़िरकार वो दिन भी आ ही गया जिसका उन दोनों को बेसब्री से इंतज़ार था। उस आख़री कहानी के साथ ही उनका हमेशा-हमेशा का इंतज़ार भी ख़त्म होने वाला था। आज कल्पनाओं में सजाकर रखी वह छवि, यथार्थ रूप लेने वाली थी। सन्नी सारी रात सो नहीं पाया। उसे पहले तो सुबह का और फ़िर शाम होने का इन्तज़ार था। इश्क़ में इंतज़ार से बड़ी कोई सज़ा नहीं होती, ये उससे बेहतर कोई नहीं जान सकता था।
वह खिड़की के पास खड़ा होकर बाहर का नज़ारा देख रहा था। उसकी नज़रे डूबते हुए सूरज पर टिकी थी। न जाने क्यों वह सूरज से ये गुज़ारिश कर रहा था कि वो जल्द से जल्द उसकी आँखों से ओझल हो जाये, पर वह था कि उसका मुँह चिढाये किसी ढीठ बच्चे की तरह एक जगह ठहर गया था।
सन्नी कभी कमरे में चहलक़दमी करने लगता तो कभी बैठकर किताब पढ़ने का बहाना करता, किन्तु उसका मन था कि कहीं लगने का नाम ही नहीं ले रहा था।
अँधेरा धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा और काले बादलों ने चाँद को अपनी आग़ोश में ले लिया। कड़कती बिजली और गरज़ते बादलों की आहट पर भी वह बार-बार अपनी नज़र दरवाज़े की तरफ़ दौड़ा देता, मगर हर बार उसे निराशा ही हाथ लगती।
“अरे! उसने आज नहीं कल मिलने को कहा था। अभी उसने आख़री कहानी सुनी ही कहाँ है! तू भी पागल है।” वह अपने माथे पर हाथ मारते हुए अपने आप को ही समझाने लगा।
वह चुपचाप टेलीफ़ोन के पास आकर बैठ गया और उसे एकटक देखता रहा। अब एक-एक पल गुज़ारना उसके लिए सौ बरस के समान था।

आधी रात गुज़र चुकी थी। सन्नी फ़ोन के पास बैठा इन्तज़ार कर रहा था; उस कॉल का, जो हर शाम आता था। एक युग की प्रतीक्षा के बाद वह समय निकट आया भी और तेज़ी से निकल भी गया जिस समय वाणी का कॉल आता था, किन्तु उस रात उसका कॉल नहीं आया।
“हर रोज़ तो फ़ोन ठीक वक़्त पर आ जाता है
किन्तु आज इतनी देर कैसे हो गई? सब ठीक तो है न?” ऐसे सैंकड़ों सवालों ने उसे घेर लिया। न जाने कितनी ही बार वह अपना फ़ोन चेक कर चुका था कि कहीं फ़ोन तो खराब नहीं हो गया। ज्यों-ज्यों वक़्त बीत रहा था उसका सब्र भी टूटता जा रहा था।
“कॉल क्यों नहीं आया? क्या वाणी उससे मिलना नहीं चाहती? फ़ोन शाम को आने वाला था लेकिन आधी रात बीत जाने के बाद भी क्यों नहीं आया? उसके साथ कुछ हुआ तो नहीं है? वह ऐसा कैसे कर सकती है? अपना किया हुआ वादा कैसे भूल सकती है? नहीं वह ऐसा नहीं कर सकती। ज़रूर कुछ हुआ होगा। शायद उसका फ़ोन ख़राब हो गया होगा। या कुछ और!” वह अनेकों प्रश्नों के भंवरजाल में फंस गया।  रात भर जागने से उसकी आँखें लाल हो चुकी थी, सिर चकराने लगा था और आँखों से अनवरत आँसू बहने लगे थे। ज्यों-ज्यों रात आगे सरकने लगी उसका धैर्य ज़वाब देने लगा। प्रत्येक दिन चौबीस घंटों का इंतज़ार भी उसे शताब्दियों का संताप लगता था किंतु आज तो इंतज़ार की सारी हदें ही पार हो चुकी थी।
“तुमने ऐसा क्यों किया वाणी? मुझसे मिलने के लिए ये आख़री कहानी सुनना ही तुम्हारी अनिवार्य शर्त थी न? फ़िर मुझसे मेरे सब्र का इम्तिहान क्यों ले रही हो? देखो! देखो मैं कब से तैयार बैठा हूँ अपनी डायरी लेकर। तुम कहाँ हो वाणी? अच्छा ठीक है, तुम मुझसे मत मिलना लेकिन एक बार कॉल करके मुझसे बात तो करो। मुझे तुम पर यकीन है तुम अपना वादा निभाओगी। तुम कॉल ज़रूर करोगी। मैं इंतज़ार करूँगा वाणी। मैं इंतज़ार करूँगा।”  वह फ़फ़क पड़ा। उसकी आँखें बरस पड़ी और हृदय अत्यंत उद्वेलित हो उठा।

सीने में कैद उसका दिल स्प्रिंग की तरह उछलने लगा। नज़रें बिज़ली की रफ़्तार से भी तीव्र दौड़ने लगी, उसका सिर दर्द से फटने लगा, उसे कमरे में रखी हर चीज़ ग्रहों की भाँति घूमती हुई नज़र आने लगी।
उस भयानक तूफ़ानी रात में वह ख़ुद के भीतर एक तूफ़ान दबाकर बैठा था। तूफ़ानी हवा के प्रहारों से खिड़कियों के पल्ले दीवारों से टकराने लगे, हवाओं की सायं-सायं की आवाज़ें चीत्कारों सी प्रतीत होने लगी। पेड़ों के पत्तों, बारिश की बूंदों, बादलों की गड़गड़ाहट और बिज़ली कौंध ने वातावरण में भयानक कोलाहल मचा रखा था। ऐसा लग रहा था जैसे सब मिलकर पृथ्वी पर आने वाली प्रलय के संकेत दे रहे हों।
सन्नी अपनी भीगी आँखों और लड़खड़ाते कदमों से चलते हुए आगे बढ़ने लगा। उसके भीतर अब कुछ भी शेष नहीं था। उसने अपना सिर पकड़ लिया और टेबल के पास लगी अपनी कुर्सी पर बैठ गया। उसका शरीर कांपने लगा, आँखों में लहू उतर आया और हृदय फट पड़ा। उसके दर्द की इंतहा क्या थी ये केवल वही जानता था।
उसने ख़ुद को सयंमित करने का प्रयास किया। उसे आभास हो चुका था कि अब न वाणी आएगी और न ही उसका कॉल। उसकी प्रतीक्षा करना व्यर्थ था। उसके कानों में वाणी की खनखनाती हँसी गूँजने लगी। उसके चारों ओर फ़ोन की घण्टिया बजने लगी। वह अविलम्ब फ़ोन का रिसीवर उठाता किन्तु उसे वाणी की आवाज़ सुनाई नहीं देती। उसके कानों में निरन्तर वाणी की हँसी, उसकी बातें और घनघनाती हुई फ़ोन की घण्टियाँ गूँजने लगी। उसने अपने कानों को हथेलियों से कसकर ढक लिया और चिल्लाने लगा।
“तुम कहाँ हो वाणी? तुम ऐसा नहीं कर सकती।” वह मासूम बच्चे की भाँति  फूट-फूटकर रोने लगा।
कुछ क्षणों तक वह अपने कानों को ढककर टेबल में सिर छिपाकर व्याकुल और विचलित मन से सिसकता रहा।

रात्रि अपने अंतिम पहर में प्रवेश कर चुकी थी। तूफ़ान की गति में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही थी। प्रकृति ने कमरे के बाहर और मन के भीतर कोहराम मचा रखा था।
सन्नी ने धीरे-धीरे टेबल में धँसा अपना सिर ऊपर उठाया और अपने आँसू पौंछने लगा।
वह ख़ुद को दिलासा देता हुआ बोल पड़ा,- “तुम अपना वादा नहीं निभा सकी तो कोई बात नहीं वाणी! किन्तु मैं अपना वादा ज़रूर निभाऊंगा। मैं ये आख़री कहानी सुनाकर अपना वादा पूरा करूँगा। तुम मिलो या न मिलो पर मैं तुम्हारा इंतज़ार करूँगा वाणी। मैं तुम्हारा इंतज़ार करूँगा।”
उसने टेबल पर रखी डायरी को अपनी ओर खिसकाया और आख़री कहानी पढ़ने लगा। उसे लग रहा था जैसे वाणी उसके सामने बैठी है। वह अपनी कल्पनाशक्ति से उसकी मानवीय छवि बुन चुका था। वाणी सामने की कुर्सी पर बैठी सन्नी को देख रही थी। उसके अधरों पर हल्की और प्यारी सी मुस्कान तैर रही थी। वह उसके द्वारा बोले गए एक-एक शब्द को बहुत ध्यान से सुन रही थी। वो पढ़ता गया और सिर्फ़ पढ़ता गया। वाणी उसकी आवाज़ पर मंत्रमुग्ध हो गई। कभी उसकी आँखें बंद हो जाती तो कभी होंठ खिल उठते। वह सन्नी के चेहरे पर दृष्टिपात करती और एक प्रणयिनी मुस्कान छोड़ देती।

सन्नी बहते हुए आँसू और रुंधे हुए गले के अवरोध के पश्चात भी निरन्तर बोलता रहा। वह बार-बार अपनी आँखें मिचमिचाता रहा और भीगी आँखों को आस्तीन से पोंछकर पन्ने पलटता रहा। उसकी आँखें बंद होने लगी, उसे सब कुछ धुँधला नज़र आने लगा। वह बहुत मुश्किल से पढ़ पा रहा था, फिर भी उसने अपने आप को रुकने नहीं दिया। वह नहीं चाहता था कि उसकी आख़री कहानी डायरी के पन्नों में दबी रह जाये। उसे अपना वादा पूरा करना था। वह वादा जो उसने एक अनजान चेहरे और परिचित आवाज़ से किया था। वह वादा जिसे वह अधूरा छोड़कर वाणी पर कोई दोषारोपण नहीं करना चाहता था। वह वादा जिसे पूरा किया जाना ज़रूरी था वाणी से मुलाक़ात के लिए। उस वादे को अंजाम तक लाना ही उसका मक़सद था जिसके लिए वो पढ़ रहा था। वह पढ़ता गया और पढ़ता गया। उसकी आँखें रक्त से भी ज्यादा लाल हो गई जैसे सारे शरीर का लहू उसकी आँखों मे उतर आया। उसका शरीर सूखे पत्ते की तरह कांपने लगा, उसकी दृष्टि बाधित हो गई और उसे पढ़ने में परेशानी होने लगी। उसके सिर में हथौड़े की चोट सी लगने लगी। वह दर्द से कराहने लगा, उसने अपना सिर पकड़ लिया किन्तु फिर भी वह नहीं रुका। वह तमाम बाधाओं को पार करता हुआ अंततः कहानी की अन्तिम पंक्ति में पहुँच ही गया। उसने अंतिम पंक्ति को पढ़ने से पूर्व अपना चेहरा ऊपर उठाकर वाणी की तरफ़ देखा। वह अब भी अधरों पर मुस्कान धरे, उसकी आवाज़ पर मंत्रमुग्ध होकर उसे निहार रही थी।
सन्नी ने वाणी के चेहरे पर दृष्टिपात किया और हल्का सा मुस्करा दिया। वह उसकी आँखों में देखता रहा। ऐसा लग रहा था जैसे वह उसे जी भरकर देखना चाहता था।
कुछ क्षणों के लिए कमरे में मृत ख़ामोशी छा गई।
वे दोनों एक-दूसरे को निहारने लगे। सन्नी की अवस्था बहुत ही विचित्र नज़र आ रही थी। उसकी आँखें बरस रही थीं किन्तु लब मुस्कुरा रहे थे। वेदना और आनन्द का मिश्रण उनके मुखमण्डलों पर दृष्टिगोचर हो रहा था।  आख़री कहानी की आख़री पंक्ति अभी भी शेष थी। सन्नी ने वाणी से नज़रें हटाकर पुनः अपनी डायरी में धँसा दी और फिर एक निश्छल मुस्कान के साथ उस अंतिम पंक्ति को पढ़ने लगा,- “हो सके तो कभी मिलने आना, वाणी! फ़िलहाल के लिए अलविदा!” वह वाणी को देखकर मुस्कुराया, उसकी गर्दन पेड़ से गिरे फल की तरह एक तरफ़ लुढ़क गई और वह कुर्सी से गिर पड़ा। और इस प्रकार उसने अपने साथ-साथ उस अनजान मोहब्बत का भी अंत कर दिया।

पुलिस इंस्पेक्टर विक्रम ने अपनी कोहनियों को टेबल पर टिकाकर दोनों हाथों की अंगुलियों को आपस में कैंची की तरह फँसा लिया और कलाइयों से बने पिरामिड पर अपनी ठोड़ी को टिकाकर सामने बैठे सिद्धार्थ को टकटकी लगाए देखता रहा।
सिद्धार्थ दुःखी मन से गर्दन झुकाए शून्य में झाँक रहा था। उसके मुख पर कई भाव एक साथ दृष्टिगोचर हो रहे थे। उसे सन्नी की मौत का जितना दुःख था उतना ही आश्चर्य भी। ये सब कैसे हुआ वह कुछ समझ ही नहीं पाया।
एक लंबे मौन के बाद विक्रम ने अपना गला खंखारकर वहाँ पसरे सन्नाटे को झंकझोर दिया।
“कितने समय से रह रहा था आपका दोस्त यहाँ?” इंस्पेक्टर विक्रम ने उसे विस्मय से देखते हुए सवाल किया।
“दो साल से।” सिद्धार्थ ने ज़वाब दिया।
“वह यहाँ क्यों रहता था?” विक्रम ने फ़िर सवाल किया।
कुछ देर चुप रहने के बाद सिद्धार्थ ने उत्तर दिया,-“वह कोई किताब लिख रहा था। उसे एकांत जगह चाहिए थी और इससे बेहतर उसके लिए कोई जगह नहीं थी।”
“उसकी मौत तनाव की वज़ह से हुई है। हमें उसके कमरे से एक डायरी मिली है जिससे साफ़ ज़ाहिर है कि वो किसी लड़की से फ़ोन पर बात करता था और उस लड़की ने उसे मिलने का वादा भी किया था, लेकिन वो मिलने नहीं आयी। ये दर्द सन्नी झेल नहीं पाया। उसने तनाव की वज़ह से  खाना-पीना, सोना सब छोड़ दिया और इसी कारण उसकी मौत हो गई। वैसे…! फ़िलहाल तो हम उस डायरी को सुइसाइड नॉट ही मान रहे हैं, फिर भी आप फ़िक्र मत कीजिए हम उस नम्बर की डिटेल्स निकालकर उस लड़की का भी जल्द ही पता लगा लेगें।” इंस्पेक्टर विक्रम ने उसे आश्वसन दिया।
“यकीन नहीं होता कि ऐसा भी हो सकता है।” सिद्धार्थ ने शून्य में झांकते हुए कहा।
“कैसा हो सकता है?”इंस्पेक्टर ने उत्सुकता से पूछा।
“सन्नी सच कहता था कि वह अपनी कहानियों को पागलपन की हद तक प्यार करता है, पर यकीन नहीं होता वो कहानियों को जी भी रहा था।” सिद्धार्थ ने एक लम्बी साँस छोड़ी।
“क्या मतलब? क्या आप इस मामले में कुछ जानते हैं?” इंस्पेक्टर ने कौतूहल से सवाल किया।
“हाँ! जानता हूँ।”
“क्या? क्या जानते हैं आप?”
“सिर्फ़ इतना, कि इस घर के टेलीफ़ोन कनेक्शन को कटे छः साल हो चुके हैं।” उसने अपनी जांघ पर हथेली से प्रहार किया और उठकर दरवाज़े की तरफ़ बढ़ गया।इंस्पेक्टर अपनी चेयर पर बैठा फ़टी आँखों से उसे जाते हुए देखता रहा।

                                                                    ■■■

कहानी के नाट्य मंचन

YOUTUBE पर कहानी सुनें 

आख़री कॉल

वाचन- सीमा सिंह 

 

Comments (22)

  1. बहुत अच्छी कहानी

  2. वाह क्या बात है ये कहानियां हमेशा सच बया कर देती हैं।
    बहुत खूब प्रशंसा को भी प्रशंसा की कमी हो जायोगी इतना अच्छे शब्दों का प्रयोग किया गया है

    1. Very nice story ….. धाराप्रवाह अति उत्तम

  3. वाह क्या बात है ये कहानियां हमेशा सच बया कर देती हैं।
    बहुत खूब प्रशंसा को भी प्रशंसा की कमी हो जायोगी इतना अच्छे शब्दों का प्रयोग किया गया हैI

  4. The best story by Sunil Panwar
    Congratulations to words bridge

  5. मुझे गर्व है कि आप हमारी शिक्षका है राजकुमारी मैम

  6. कहानी को पढ़ने की शुरुआत की तो लगा छोटी सी प्रेम कहानी है…… फिर महसूस हुआ सच प्रेम बिन देखे भी हो सकता है… प्रेम का कितना अद्भुत रूप है.. लेकिन सोचा नहीं था अंत इतना अलग होगा। पाठक सोच भी नही पाता कि ऐसा कुछ भी हो सकता है।लेखक को कल्पनाशीलता के लिए बधाई देना चाहूंगी…. मन भारी हो गया अंत में…. मैं तो उनके मिलने का इंतजार कर रही थी। एक अच्छी कहानी के लिए शुक्रिया सुनील जी।

  7. सभी पाठकों एवं ब्लॉग की संपादक डॉ. राजकुमारी राजसी जी का हार्दिक आभार जिन्होंने मुझे ससम्मान प्रकाशित किया

    1. बहुत सुंदर और मार्मिक कहानी सुनील जी की

  8. बहुत खूबसूरत कहानी है.. पूरी कहानी में ही वो सब सोचता गया.. हकीकत कुछ था ही नहीं.. कहानी को अपने जीवन में सजीवता के साथ जी गया और उसी कहानी के साथ मर गया… बढ़िया लिखे है…

  9. आख़री कॉलके के लिए मैं सुनील पंवार जी को धन्यवाद कहता हु की उन्हों इतनी सुंदर कहानी लिखी जिसका कथानक इतना कसा हुआ है। मैं डॉ राजकुमारी जी का भी धन्यवाद करता हु की उन्होंने इतने सुंदर कहानी में संपादक के रूप में अपनी भूमिका निभाई। यह कहानी कल्पना शक्ति के यथार्थ को दर्शाते हुए किसी के अपने काम के प्रति लगाओ के उस पागलपन को भी समेटे हुए है।

  10. बहुत ही खूबसूरत कहानी, अंत तक बांधे रखती है। सुनील पंवार जी आपकी कहानी बहुत ही खूबसूरत लगी, इतनी खूबसूरत कहानी के लिए आपको हार्दिक शुभकामनाएं

  11. आप की कहानियाँ पाठक को अंत तक बांधे रखने में सक्षम है
    आपकी कहानी आखिरी कॉल आपकी सोच की उत्कृष्टता को दर्शाती है।
    आप एक मजबूत कहानी कार हैं।
    मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ आप के साथ हैं

  12. आज मैंने पहली बार आपकी कहानी पढ़ी और पढ़ती ही रह गई । अद्भुत कहानी। आपको हार्दिक बधाई सुनिल जी

  13. मानवीय भावनाओं को दर्शाती बेहद सशक्त कहानी

  14. बहुत खूब इस काल्पनिक कहानी के कल्पना में डूबा पात्र पूरी कहानी लिख गया। लेखक कुछ ऐसे ही होते है जो डूब जाते है अपने पात्र में हू ब हू ।
    आत्मा अमर है !

  15. लेखक जी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं

  16. Very nice Congretulations

  17. अच्छी मनोवैज्ञानिक कहानी लेखक को हार्दिक बधाई

  18. बेहद दिलचस्प, पढ़ कर कुछ देर स्तब्ध रह गई। शुरुआत से अंत तक पाठक को बांधे रखती है यह कहानी और राज अंत में ही खुलता है या यूं कहूं कि एक प्रश्नचिन्ह छोड़ जाता है।

  19. मानवीय भावनाओं को दर्शाती बेहद सशक्त कहानी हार्दिक शुभकामनाएँ आप ऐसे ही प्रगति पथ पर अग्रसर हो

  20. भावुक कर देने वाली कहानी….

    शुभकामनाएँ सुनील बाबू

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