आज़ादी के बाद भुला दिए गए दलित स्वतंत्रता सेनानी
रत्नकुमार सांभरिया |
वरिष्ठ लेखक |
स्वाधीनता संग्राम में प्रत्येक वर्ग-समुदाय ने बिना कोई भेदभाव किए कुर्बानी दी थी। इनमें दलित वर्ग के आंदोलनकारी भी शामिल थे। राजस्थान में विद्रोह का पर्याय बन कर परवान चढ़े प्रजामण्डल आंदोलनों में भी दलितों की भूमिका सिर्फ समर्थन तक सीमित नहीं रही, बल्कि उन्होंने संघर्ष और बलिदान के माध्यम से आजादी की लड़ाई को सशक्त और प्रभावशाली बनाया।
स्वतंत्रता सेनानी जमनालाल बजाज, वकील चिरंजीलाल मिश्रा, हीरालाल शास्त्री, बाबा हरीशचन्द्र और कपूरचन्द पाटनी ने 1937 में जयपुर प्रजामण्डल की स्थापना की थी। दलित समुदायों से आने वाले आंदोलनकारियों में हरिशंकर सिद्धार्थ शास्त्री, रामचन्द्र बोहरा पटेल, नत्थू पटेल, भंवरीलाल पटेल, गोविन्द पुजारी, रेवाराम, नारायण झण्डेवाला जैसे दलित आंदोलनकारियों ने इनमें जान फूंक दी। इसके अलावा शिवप्रसाद मरमट, कोलियों की कोठी के मेवाराम और मांगीलाल, मेहतर बस्ती के कालूराम प्रधान, मास्टर रामनारायण, मास्टर मोतीलाल, रेगरों की कोठी के रघुनाथ जलुथरिया, धन्ना कराड़िया और रामचन्द्र ने आजादी की लड़ाई में कंधे से कंधा मिला कर इन आंदोलनकारियों का साथ दिया। कुछ जेल में भी गए और यातनाएँ सहीं।
अप्रैल, 1938 में स्थापित हुए मेवाड़ प्रजामण्डल के बलवंत सिंह अध्यक्ष, भूरालाल बया उपाध्यक्ष तथा माणिक्यलाल वर्मा महामंत्री नियुक्त हुए। विजयसिंह ‘पथिक‘, सीताराम दास, प्रेमचंद भील ने बिजोलिया आंदोलन को गति दी और जेल गए। भील आंदोलन के दौरान मोतीलाल तेजावत आदिवासी युवकों को साथ लेकर आज़ादी की जंग में कूद पड़े। मेवाड़ क्षेत्र के चित्तौड़गढ़ के छोटी सादड़ी के अमृतलाल यादव अपनी स्कूली शिक्षा बीच में छोड़ कर किशोरावस्था में ही मेवाड़ प्रजामण्डल के सदस्य बन गए। गिरफ्तार हुए, यातनाएँ सहीं और महीनों कारावास की सजा भुगती। छोटी सादड़ी, चित्तौड़गढ़ राज्य के ही जयचंद मोहिल (रैगर) आंदोलन के दौरान जेल गए।
अजमेर राज्य से ठाकुर गोपालसिंह खरवा, सेठ दामोदर राठी, विजयसिंह ‘पथिक‘, अर्जुनलाल सेठी, केसरीसिंह बारहठ, हरिभाऊ उपाध्याय, रामनारायण चौधरी, ज्वालाप्रसाद शर्मा के साथ दलित वर्ग से आने वाले ब्यावर निवासी कँवरलाल जेलिया, हजारीलाल पंवार, परसराम बाकोलिया ने भी आजादी की लड़ाई लड़ी, जेल गए और यातनाएँ सहीं।
भारत में अपनी सैन्यशक्ति बढ़ाने के उद्देश्य से अंग्रेजों ने द्वितीय विश्वयुद्ध (1939 – 1945) के दौरान सन् 1943 में ‘चमार रेजिमेन्ट‘ नाम से थलसेना का गठन किया था, जिसने ब्रिटेन के मित्र देशों की सेना के साथ बर्मा में 13 सितम्बर, 1945 को जापान के खिलाफ युद्ध लड़ा। ‘चमार रेजिमेन्ट‘ के अदम्य साहस, शौर्य और युद्धकौशल से प्रभावित हुए अंग्रेजी शासन ने जब इस रेजिमेन्ट को सुभाषचन्द्र बोस की आजाद हिन्द फौज के खिलाफ लड़ने के आदेश दिए तो रेजिमेन्ट के कर्नल मोहनलाल कुरील ने यह कहते मना कर दिया कि हम अपने देश के खिलाफ नहीं लड़ेंगे। अलवर जिले के बसेठ गाँव के गुलाबचन्द जाटव भी उसमें थे, जो बाद में अलवर प्रजामण्डल में शामिल हुए और शोभाराम, हरिनारायण शर्मा आदि क्रांतिकारियों के साथ मिल कर आज़ादी की लड़ाई लड़ी। आंदोलन में उनके साथ त्रिलोक जाटव और सम्पतराम थे।
जोधपुर निवासी नरसींग देव गुजराती (एन.डी. गुजराती) ऐसे विरले दलित क्रांतिकारी थे, जो चौदह वर्ष की कम उम्र में ही ‘इंडियन नेशनल कांग्रेस‘ की वानर सेना में भर्ती हो गए थे। उनका परिवार जोधपुर राजघराने में सफाईकर्मी था। अत: राजविरोधी गतविधियों के कारण उनको घर-परिवार से अलग कर दिया गया। गांधीजी के आह्वान पर ‘भारत छोड़ो आंदोलन‘ पूरे मारवाड़ में उग्र हो उठा। जोधपुर में कई जगह विस्फोट हुए। आंदोलनकारी पकड़े नहीं जाएँ, नरसींग देव गुजराती ने अपनी सूझ-बूझ से मारवाड़ की विभिन्न मेहतर बस्तियों में उनको भूमिगत करवाया। उनके खान-पान और रहन-सहन की पूरी व्यवस्था की। वे भेष बदल कर यानी मैले-कुचैले, फटे पुराने कपड़े पहन कर, सिर पर गंदा सा फेंटा बाँध कर, टोकरी और हाथ में झाडू लेकर जोधपुर, पाली-मारवाड़ के भूमिगत आंदोलनकारियों के पत्रों का एक स्थान से दूसरे स्थान तक अदान–प्रदान करने का जोखिम भरा कार्य किया करते थे। जो क्रांतिकारी भूमिगत हुए उनमें जयनारायण व्यास, मथुरादास माथुर, मामा अचलेश्वर प्रसाद शर्मा, द्वारका प्रसाद पुरोहित और राधाकिशन बोहरा आदि थे।
इनके अलावा भूरालाल भगत आलोरिया, रामचन्द्र भूरा पटेल, भंवरीलाल पटेल, गोविन्द पुजारी, रेवाराम, शंकरलाल, नारायण झण्डेवाला, हरलालसिंह बलाई, जीवनसिंह धानका (जयपुर), सूर्यमल मौर्य, नारायणदास मौर्य, बोदुलाल, उन्दरीलाल (ब्यावर), चांदमल मौर्य, बीजराज उजैपुरिया (अजमेर), चेतनजी कबाड़ी (बाड़मेर), मानूराम बढ़ारिया (उदयपुर) आदि दलित जातियों के लगभग 60 आंदोलनकारी हैं, जिन्होंने आज़ादी की लड़ाई में योगदान दिया। लेकिन अफसोस है कि सामान्य जातियों के नाम पर विश्वविद्यालय, महाविद्यालय, विद्यालय, बांध, सड़क, पथ, गली-मोहल्ले, विभिन्न सरकारी योजनाएँ और कार्यक्रमों के नाम रखे गए। लेकिन दलित स्वतंत्रता सेनानियों को आजादी के बाद भुला दिया गया। कुछेक को छोड़ कर, उस गली के नुक्कड़ पर भी उनके नाम की पट्टिका नहीं लगी, जिस गली के घर में वे जन्मे और अंतिम साँस ली।
स्वाधीनता आंदोलन के सूत्रपात से लेकर पूर्ण आज़ादी मिलने तक राजस्थान (राजपूताना) के कुल सत्रह आंदोलनकारी शहीद हुए, उनमें शाहपुरा-भीलवाड़ा के प्रताप सिंह बारहठ (1918), बेगूं-मेवाड़ के रूपाजी धाकड़ और किरपाजी धाकड़ (1922), बून्दी के नानकजी भील (1922), जोधपुर के बालमुकुन्द (1942), जैसलमेर के सागरमल गोपा (1946), रायसिंहनगर-बीकानेर के बीरबल सिंह जीनगर (1946), धौलपुर के ठाकुर छत्रसिंह और पंचम सिंह (1946), भरतपुर के रमेश स्वामी (1947), डाबड़ा-जोधपुर के चुन्नीलाल शर्मा और पन्नालाल चौधरी (1947), लाडनूं के रामाराम चौधरी और रूघाराम चौधरी (1947), कुचामनसिटी के अल्काराम चौधरी (1947), रास्तापाल-डूंगरपुर के नानाभाई खांट और छात्रा कालीबाई भील (1947) हैं।
इन आंदोलनकारियों में से इकलौते दलित क्रांतिकारी बीरबल सिंह जीनगर का ही उदाहरण लिया जा सकता है। वे 30 जून, 1946 को रायसिंह नगर में शहीद हुए। श्रीगंगानगर में उनके नाम पर ‘बीरबल चौक‘ है। चौक के सौन्दर्यकरण के लिए तो नगर परिषद ने बजट आवंटित कर दिया, लेकिन शहीद की प्रतिमा के नाम पर बजट देते समय अपने हाथ खींच लिए। विडम्बना है कि देश के लिए प्राण न्योछावर करने वाले सेनानी की प्रतिमा परिजनों को अपने खर्च पर स्थापित करवानी पड़ी। लोकार्पण पट्टिका पर छोटे-बड़े कई नेताओं के नाम हैं।
यह लेखक के अपने विचार हैं।
लेखक राजस्थान साहित्य अकादमी के शीर्ष साहित्य सम्मान ‘मीरा सम्मान’ से सम्मानित है।
रत्नकुमार सांभरिया भाड़ावास हाउस सी-137, महेश नगर, जयपुर-302015 (राज.) मो. 9636053497 sambhriark@gmail |
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