अंजू शर्मा ईमेल : anjuvsharma2011@gmail.com परिचय : दिल्ली में जन्म और रिहाइश, मूलतः राजस्थान से। सम्प्रति : क्रिएटिव एसोसिएट के रूप में कार्यरत। पिछले डेढ़ दशक से भी अधिक समय से सभी प्रतीक्षित पत्र-पत्रिकाओं और ब्लॉग्स में कई वर्षों से कविताओं, कहानियों, लेखों का प्रकाशन। कविता चालीसा साला औरतें बहुत चर्चित हुई और राष्ट्रीय स्तर पर कई कार्यक्रमों के माध्यम से इस पर लगातार बातचीत हुई। विभिन्न अकादमियों सहित आल इंडिया रेडियो और बहुत से महत्वपूर्ण मंचों पर रचनापाठ। कविता ‘बेटी के लिए’ चीन के ‘क्वांगचो हिंदी विश्वविद्यालय, क्वांगचो, चीन’ में स्नातक स्तर के पाठ्यक्रम में सम्मिलित। *उपन्यास ओ री कठपुतली पर लघु शोध। अन्य पुरस्कृत कहानियां : कहानी ‘समयरेखा’ स्टोरीमिरर से पुरस्कृत। कहानी ‘बन्द खिड़की खुल गई’ प्रतिलिपि द्वारा आलोचक द्वारा चुनी गई कहानियों में शामिल। कहानी “रात के हमसफ़र’ जयपुर में पहले कलमकार सम्मान 2018 के सांत्वना पुरस्कार के लिए चुनी गई। |
प्रीत करे दुःख होय |
यूँ तो जीवन ही एक ऐसी यात्रा है जिसमें बहुत से पड़ाव आते रहते हैं पर कुछ लोग होते हैं जिनके लिये यात्रा जीवन बन जाती है। उन्हीं में से एक है महेसा जो हर रोज उस बस यात्रा पर निकलता है जो लोगों के लिये तीर्थयात्रा है पर उसके लिये पेट की भट्टी को शांत करने का एक जरिया क्योंकि सबसे बड़ी व्याधि है आदमी की भूख। धर्म और ज्ञान का स्थान उसके बाद आता है। तो जहाँ लोग पुण्य कमाने, पाप काटने या फिर मनौतियों को पूरा करने निकलते है वह भी निकलता है कि दो वक्त हाथ से मुँह के सफ़र को तय करने का जुगाड़ कर सके।
आगरा से गोवर्धन और गोवर्धन से आगरा, इसी रूट पर चलती एक बस में कंडक्टर की ड्यूटी करता है महेसा। वैसे उसमें और इस बस में ज्यादा फ़र्क़ नहीं है, दोनों ही इस यात्रा पर रोज निकलते हैं और लौट आते हैं। न बस के पास कोई मनौती हैं महेसा के पास। दोनों हर रोज के मूक सहयात्री हैं लेकिन जाने किस जन्म के पाप रहे होंगे कि कटते ही नहीं।
तेजी से दौड़ रही है बस अपने पीछे घर, पेड़, खेत, बिजली के ख़म्बे पीछे छोड़ती हुई आगे बढ़ रही है। मथुरा के बस स्टैंड के आते ही ड्राइवर समयसिंह ने गति थोड़ी धीमी की। आदतन महेसा ने सिर बाहर निकाला और टेर लगाने लगा….
“आओ जी परकम्मा वाले …..परकम्मा वाले…. गोवर्धन परकम्मा वाले…. गिर्राज जी परकम्मा वालेssss….”
जैसे ही बस रुकी, उसने बाहर खड़े यात्रियों पर एक उचाट सी दृष्टि डाली और उसकी उड़ती नज़र में जाने क्या कौंधा कि बिजली की गति से उछलकर वह पहली सीट से गेट पर आ गया।
आज भीड़ बहुत है। मेले का खास दिन है न। धक्कामुक्की और रेल पेल ने घेर लिया है आगे के गेट को। महेसा की निगाहें बेचैनी से अगले गेट चढ़ रही महिला सवारियों के बीच उसे ढूंढ रही हैं।
‘परकम्मा…. गिर्राज जी परकम्मा!” वाला स्वर कहीं बिला गया है। जुबान को जैसे लकवा मार गया है या बोल जैसे विस्मृत हो गए हैं। ड्राइवर समयसिंह मुड़कर इशारा करता है।
महेसा की जैसे बेहोशी टूटती है पर साथ ही टूट गया है उसका सत भी। अभ्यासी स्वर फिर फूटते हैं, उसकी हांक गूंजने लगती है पर शब्द मानो दिशाहीन होकर बिखर रहे हैं।
हॉर्न की आवाज़ उसकी तंद्रा को भंग कर देती है।
“परकम्मा वाले….पर…कम्मा…..पर…कम्मा वालेsss!!”
इस बार ऐसे सब यंत्रचालित सा चल रहा है। उसके स्वर में, उसकी पुकार में वह ताब नहीं जो चलती सवारी के पैर मोड़ देती है। भीड़ बस में भर रही है। बस की खाली जगह भीड़ के रेले से पट चुकी है। पर इस चढ़ती भीड़ में वह चेहरा नहीं जिसकी तलाश महेसा के अंतर्मन में हलचल मचाए हुए है। उस कौंध ने जैसे उसके मन को ठिठका दिया है।
वह दौड़कर गेट से नीचे कूद गया पर वहाँ कोई नहीं जो उसकी इस बेचैनी से वाबस्ता हो। कोई चेहरा नहीं जिससे उसकी बेचैन आत्मा को सुकून का एक पल नसीब हो। कुछ सवारियाँ बस की भीड़ देखकर पीछे हट चुकी हैं। उनमें भी वह चेहरा नहीं।
अन्य दिनों सा कोई और दिन होता तो वह इन पीछे हट चुकी सवारियों को आकर्षित करके बस में भरने के लिये जी जान लगा देता। भले ही समयसिंह हॉर्न पर हॉर्न बजाता रहता पर सवारियों को लिये बिना महेसा बस में चढ़ने का नाम न लेता। कभी हँसते हुए तो कभी झुंझलाकर मोटी सी गाली फेंकते हुए, जो अक्सर उसकी बड़ी मूंछों में अटककर रह जाती, समयसिंह गाड़ी चला देता और महेसा दौड़कर बस के अगले गेट के पायदान पर लटककर चिल्लाता, “ऐ भाईसाहबsssss… मुझे तो ले लो…”
फिर दोनों जोर से खिलखिलाकर हँस पड़ते। देर होने से ऊब रही सवारियों के चेहरों पर भी मुस्कान थिरक जाती। एकाध पुरुष कोई जुमला फेंकता, कोई स्त्री कनखियों से अनदेखा करते हुए सब देखती, कोई सवारी हाथ में बंधी घड़ी देखते हुए बड़बड़ाती, कोई अपना बालक संभालता तो कोई सामान और इसी सबके साथ बस आगे बढ़ती चली जाती।
आमतौर पर गेट बन्दकर महेसा चढ़ चुकी सवारियों पर नज़र डालते हुए बस की किसी पिछली सीट की ओर बढ़ जाता था। इस बीच सवारियाँ खाली सीटों पर व्यवस्थित हो गई होतीं। बस के बीच मे, दोनों ओर की सीटों के बीच की जगह पर वह किसी सीट पर टेक लगाकर खड़ा होता और “टिकट …टिकट जी…” की आवाज़ लगाने लगता। तब तक बस तेज़ गति पकड़ चुकी होती।
महेसा अपने कान पर टँगी कलम उतारकर टिकट बनाना शुरू करता। कुछ टिकटें बनाकर वह बस में आगे की ओर बढ़ते हुए देखता कहीं कोई सवारी छूट तो नहीं गई है।
पर आज वैसा कुछ न हुआ। उस एक कौंध ने उसके एक युग पुरानी धीरज की थेगली लगी चादर को मानो यूँ चीर दिया कि जैसे वह फिर कभी नहीं जुड़ेगी।
“कैसे निर्दयी हो गोवर्धन महाराज… मेरे दुःख का कोई तो भरम रहने दो… ज़िंदा रहना जरूरी ना है तो भी जीता रहा… जल बिन मीन सा तड़पकर भी तुम्हारे दिये जीवन की मरजाद रक्खी मैंने… उसे देखकर ज़िंदा रहना और जीते रहना मेरे सामर्थ के बाहर की बात है महाराज… दया करो…” मन का हाहाकार जीने नहीं देता। तड़प उठा है महेसा। समय का अंतराल पीड़ा की माटी से पट गया है।
उसके मन की शांत झील में याद का कोई कंकड़ यूँ गिरा कि छोटा सा भँवर उठा और धीमे-धीमे पूरी सतह पर फैल गया। उसने एक बार फिर खिड़की के बाहर झांका, बाहर पीछे तक देख लिया पर उसकी बेकरारी को थाह नहीं मिल रही।
कहाँ गई वह? लग तो वही रही थी। कहीं उसके मन का वहम तो नहीं? वह हो ही न।
या ये भी तो हो सकता है, कोई और हो… उस जैसी।
उस जैसी कोई और… उसका अपना ही ये ख़याल उसके दिल में शूल की तरह गड़ गया। दिल से हूक सी उठी। उस जैसी कोई और कैसे हो सकती है? होती तो उसका मन आज भी बियाबान में राह भूले प्राणी सा भटक न रहा होता।
यही आगरा से गोवर्धन परिक्रमा तक के चक्कर और फिर आगरा की ओर वापसी में जीवन का चक्र घूम रहा है। सुबह से शाम होती है इन्ही चक्करों में, इन्ही सवारियों को पुकारती आवाज़ों के बीच दिन भर खोया रहता है महेसा, जीवित रहने के भ्रम को पालते पोसते हुए जैसे अपने भीतर की दुनिया से आँख फेरे रहता है। ऐसे ही सूरज जी एक चक्कर पूरा करते हुए अपनी पाली की ड्यूटी चंद्रमा को सौंपते हैं। जैसे वह अपनी ड्यूटी से फारिग हो लौट आता है अपने बसेरे में। ऐसा बसेरा जहाँ कब्रिस्तान की सी खामोशी में उसे रात काटने की सज़ा मिली है।
अनसुनी करता रहता है वह उस पुकार को जो रात के अंधेरे में जब उठती है तो कलेजा चीरकर दोफाड़ कर देती है। उस अंधेरी कोठरी में निर्जीव पड़ी देह से छिटककर रोआराट मचाता है, वही जिसे मन कहा जाता है।
कहते हैं न मन को जितना दबाओ उतना ही ज्यादा मनमानी पर उतरता है। महेसा मन की लगाम को कसे पहाड़ सा जीवन काट रहा है जैसे कोई वनवास काट रहा हो। इसके अतिरिक्त जीवन में अब है ही क्या।
उसे अपनी देह पर कोड़े बरसाने वाला चिनप्पा याद आ रहा है। दाऊजी के मेले में एक घाघरेनुमा वस्त्र पहने हुए देवीभक्त चिनप्पा अपने चेहरे और नग्न देह पर हल्दी कुमकुम के मिश्रण जैसा कोई लेप लगाए हुए रहता। सड़क पर देवी मरियम्मा का आराधक चिनप्पा उनकी भक्ति के नाम पर अपनी देह पर कोड़े बरसाता और उसकी माँ एक ढोलक को एक डंडी से बजा रही होती।
जैसे-जैसे भक्ति की तरंग गहरी होती जाती, ढोलक की फटकार भी तेज होती जाती और चिनप्पा भी मानो किसी सम्मोहन में पूरी तरह डूब जाता। इसी के साथ कोड़े की फटकार और उसका वार तेज और तेज होता जाता। ढोलक की ढम ढम, कोड़े की फटकार और उसकी कमर से बंधी घंटियों की माला से निकला स्वर, ये तमाम आवाज़ें मिलकर एक विचित्र से वातावरण की रचना करतीं।
यह कैसी उपासना है, कैसा सम्मोहन है कि चिनप्पा अपनी ही देह को उधेड़ देता है। यह ईश्वर की भक्ति का सम्मोहन है या भूखे पेट को भरने की विवशतापूर्ण जुगत है, तय नहीं कर पाता था महेसा पर चिनप्पा के हर वार पर महेसा के दिल पर एक चोट लगती। महेसा चिनप्पा को याद करता है तो मन की देह पर उभर आते हैं उस जैसे कई घाव। आखिर अलग क्या है? प्रेम भी तो ऐसी ही साधना, ऐसा ही मन्त्रबिंधा सम्मोहन कि आदमी सर्वस्व लुटाकर भी उस नशे से आजन्म नहीं उबर पाता है। इस नशे में डूबे रहना ही उसका इलाज है और वही दवा भी। महेसा भी इस नशे में डूबा तो डूबता चला गया।
यह जानते हुए कि कुसुमा उसके लिए काँटों की बाड़ से घिरा वह जवाकुसुम है जिसे वह कभी छू नहीं पाएगा, वह प्रेम के इस कण्टकवन में उतरकर लहूलुहान हो गया। ये जो बित्तेभर का मन है देह में वो कहाँ किसी भेद को मानता है, प्रेम कब किसी निषेध की पालना करता है। प्रेम है तो विछोह है, विछोह है तो स्मृति है, स्मृति है तो कसक है, कसक है तो पीड़ा है, कभी न ख़त्म होने वाली पीड़ा और बारहों महीने टभकता-कसकता मन का घाव जो हर रात हरिया जाता है। जिसका हरा रहना ही उसकी साँसों की आवन जावन का सहारा है।
अब तो उसे इस पीड़ा की भी आदत हो गई। इसके बिना जीवन में क्या बचेगा? महेसा को प्रेम ही नहीं प्रेम के नाम पर मिली पीड़ा से भी उतना ही मोह है, तभी तो उसे मरी बंदरिया के बालक सा छाती से लगाए हुए है। तभी तो हर रात स्मृति के कोड़े से वह अपने अंतर्मन को लहूलुहान कर बैठता है। पर आज तो दिन के उजीते में भी वह पीड़ा ऐसे रड़क उठी है जैसे वर्षों पुराने घाव पर कोई नमक छिड़क दे।
बस के दोनों गेट बंद हो चुके हैं। गाड़ी ने गति पकड़ ली है। उसका ठंडा हो चुका उत्साह रंग बदलकर अब भरम का चोला पहनना चाहता है पर नाकाम रहता है। उम्मीद का पाखी उड़कर कहीं दूर किसी नाउम्मीदी के वृक्ष की फुनगी पर जा बैठा है। मायूसी और उदासी को उसने ऐसे लपेट लिया जैसे सामने की सवारी ने खिड़की की हवा से उड़ती अपनी चादर को कस लिया है।
पर मन भला कैसे माने, फिर अतीत का एक छोर उसे बीते समय की छूटी हुई पगडंडियों की ओर खींच रहा है। लग रहा है जीवन का सत तो कहीं पीछे ही छूट गया। एक बार फिर वही ख़याल उसकी रूह में सुराख बनाता हुआ घुस आया है। लग तो वही रही थी। हूबहू वही। उसे पहचानने में भला वह गलती कर सकता है? एक ही झलक देख पाया था वह। एक क्षण के जाने कौन से हिस्से में महज कौंध भर पर मन के सारे तार झंकृत हो गए थे।
अनमने मन से अब वह बस के पीछे की ओर बढ़ रहा है।
“हाँ जी..कोई छूट तो ना गया जी…” रोज आदतन दोहराए जाने वाले ये शब्द आज कितनी थकान के साथ उतरे हैं उसकी वाणी में। आज एक-एक हरफ़ की सच्चाई की कसम उठा सकता है वह। उसकी देह घिसट रही है और मन पीछे छूट गया है।
सवारियाँ मन ही मन विनत होकर झूम रही हैं, बस में पंचम स्वर में गूंज रहा है,
“श्री गोवर्धन महाराssssज, ओ महाराssssज,
तेरे माथे मुकुट विराज रह्यो।”
भीड़ अब थोड़ी छंट गई है। सीटें भर गई है। कुछ सवारियाँ अभी भी खड़ी हुई हैं। या तो उन्हें सीट नहीं मिली या फिर वे सामान को व्यवस्थित कर रही हैं। अभी दूसरी सीट तक पहुँचा था कि एकाएक उसकी सरसराती नज़र को जैसे ब्रेक लग गया।
बस के पिछले हिस्से में एक सवारी जरा झुकी तो उसके पीछे जो दिखा उसने महेसा की बेचैनी को अपने चरम पर पहुँचा दिया। ये वही थी। सोलह आना वही।
वही चित्ताकर्षक चेहरा, वही बड़ी बड़ी आँखें किंतु चेहरे की लुनाई कहीं लोप हो गई थी और आँखों में चपलता की जगह विचित्र से खालीपन ने ले ली थी। जाने समय की मार थी किन्ही दुःखों की कि उसकी देह शिथिल और उदासीनता की शिकार मालूम होती थी।
इस दफ़ा महेसा के कलेजे से एक हूक उठी जो जाने कैसे कुसुमा तक पहुँचकर एक दस्तक में बदल गई। अब उसकी नज़रें गेट के पास जमे महेसा पर जा टिकी थीं। नज़रें मिलीं तो कुसुमा की दृष्टि में सौ जुगनूओं की चमक जगी और अगले ही क्षण लुप्त हो गई, जैसे भभककर दीवार पर लगा बिजली का लट्टू बुझ जाए है। दोनों के दिलों में एक अनचीन्ही सी खुशी का ज्वार एक लम्हे को उठा और अपनी सतह पर बैठ गया। वह नीचे झुक गई। उसके हाथ सीट पर बैठे पुरुष के कंघे से गिरी चादर को सहेज रहे थे।
जरूर वह पीछे के गेट से चढ़ी होगी और हाथ का बैग जमीन पर टिकाकर अब बैठ चुकी थी। बस लगभग पूरी भर चुकी थी। महेसा के कदम जैसे जम से गए थे। उसके एक दीदार से बीते समय का कोई क्षण, स्मृति पटल पर कौंधा और समय जैसे उसी मोड़ पर आकर ठहर गया।
हवा में घुल रहा प्रेम का वासंती रंग, महक उठी है किशोरावस्था को लांघती दो कच्ची देहों की कच्चांध, गूंज रही है दस दिशाओं में उन दोनों की उन्मुक्त हँसी, साइकिल के आगे की ओर बैठी एक किशोरी और पैडल मारता हुआ एक किशोर।
लड़की अपने सीने पर पड़े दुपट्टे को संभालना सीखने लगी थी और किशोर की मसें भीगने लगी थीं।
एक ही गाँव के रहवासी, तुतलाने और गुढ़लियाँ चलने की उम्र के साथी, साथ-साथ झुंड में जामुन और कैरियाँ बटोरते, वे दोनों कब एक दूसरे के मनमीत बन गए, न वे जान पाए न तेज़ी से सरकता समय का पहिया। साइकिल अब केवल साइकिल नहीं रह गई थी। उस पर बैठने से कुल की मर्यादा के नष्ट भ्रष्ट होने का भय जुड़ गया था। झुंड अब पीछे छूट गया था। यह अनबोले ही घटित हुआ कि उनका साथ अब एकांत के साथ पर्देदारी का मुँह ताकने लगा था।
यौवन की दहलीज बस एक कदम दूर थी पर मन था कि इसे एक ही छलाँग में पार कर पहुँच जाना चाहता था प्रियतम की बाँहों में। उन दोनों को इस पड़ाव का एहसास तब हुआ जब एक के नाम से दूसरे की धड़कन बेक़ाबू होने लगी। जब एक के बिना जीवन रेगिस्तान सा सूना और नीरस महसूस होने लगा। जब मन की सुमिरनी में आठों पहर बस एक ही नाम जपा जाने लगा। सात स्वर्ग अपवर्ग सुख जब सिमटकर एक चेहरे में आन बसे। रातें आँखों में कटने लगीं और दिन मिलन की बेचैन प्रतीक्षा में।
उस रोज अमराई जाने किसकी देह के ताप से धधक रही थी। कुसुमा की कनपटियाँ सुर्ख हो गई थीं। पूरे बदन में कैसी मीठी सी सनसनाहट हो रही थी जब महेसा ने कसकर उसका हाथ थाम लिया। उसकी शिराओं का समस्त लहू बहकर जैसे चेहरे पर इकठ्ठा हो गया। वह रक्ताभ चेहरा महेसा के मन में बस गया।
कंधे पर पड़ा बस्ता संभालते हुए वह हाथ जरूर छुड़ा रही थी पर मन था कि महेसा के सीने से जा लिपटा था। देह थी कि किसी वशीकरण में घिरी आकर्षण और बंधनों से जूझ रही थी। सही और गलत के बीच छिड़ी जंग में सही हाथ से फिसल रहा था। दिमाग की चेतावनियों का स्वर मंद पड़ने लगा था। संस्कारों की डोर को थामने की कोशिश करते हुए उसने शिकायत करनी चाही।
“ये क्या कर रहा है महेसा! छोड़ न! काऊ ने देख लिया तो फ़जीहत है जाएगी।” हाथ छुड़ाते हुए लरज गया था उस रोज कुसुमा का मीठा स्वर।
“होन दे फ़ज़ीहत। तू मेरी है तो हर फ़ज़ीहत झेल सकता हूँ मैं।” उसे खींचकर गले से लगाते हुए उसने कहा तो जाने कैसे दस हाथियों का बल और हौसला उसकी फड़कती बाजुओं में समा गया था।
“इत्ता प्रेम करे है तू?”
“हाँ इत्ता…” उसे बाजुओं में कसते हुए उसके कानों को छूते अधरों ने प्रेम की शिनाख़्त की।
“कित्ता?”
“मेरे दिल की धड़कन सुन कुसुमा… जान जाएगी कि कित्ता प्रेम करता हूँ। तू कहे तो दुनिया तेरे कदमों में डाल दूँ बस तू मेरी रहना।”
“तो कह दे अपने अधीरे प्रेम से कि बाट देखना सीख ले, कुसुमा हाथ न आने की।” विहंसती उस मानिनी ने कहा जरूर पर प्रिय के दिल की धड़कनें गिनने से खुद को रोक न पायी और उसके एक ही झटके से जा लगी उसके सीने से।
सुनी थी उसने उसके सीने पर सिर रखकर दिल की सरगम पर महेसा के दिल का हाल केवल कुसुमा ने ही नहीं उसके पूरे गाँव ने जान लिया था और जो जान लिया वह किवदंती सा दसों दिशाओं में ऐसे फैला जैसे डाल पके अमरूद की सुगन्धि फैलती है।
उसके कंधे पर सिर टिकाए बैठी कुसुमा की देह की मदमाती सुगन्धि में अभी उसके मन का हरिण पूरा बौराया भी नहीं था कि वे चारों आन पहुँचे थे, गाँव के दबंगों के लड़के, जैसे स्कूल से ही उनका पीछा कर रहे हों। कुसुमा के साथ क्या हुआ वह कभी नहीं जान पाया पर उसके महीनों खाट पर कटे थे जब उसे मरा जान उसे रुई की तरह धुनने वाले वे गाँव के बाहर फेंक गए थे।
विधवा माँ उस अवशेष को समेटकर मामा के यहाँ आगरा चली आयी। जी गया था वह। माँ की कातर पुकार पर जाने विधाता का मन डोल गया था या फिर उसके जीवन में रौरव नरक का अग्नि ताप जीवन भर झेलना अभी बाकी था, ऐसा ताप जिसमें जीवनभर उसे झुलसने की सज़ा उसे भुगतनी थी। गाँव की छोरी से प्रेम करने की जुर्रत की सज़ा। देह की पीड़ा या ज़ख्मों की कहाँ सुध थी उसे, उसका तो तनमन विछोह की अग्नि में सुलग रहा था।
“टिकट…” बैठी हुई सवारी ने टोका तो जैसे वह एक युग पुरानी नींद से लौट आया जिसकी पीड़ा अब भी उसके चेहरे पर थी। कुसुमा के साथ बैठा, निस्तेज पीले पड़े चेहरे और कमजोर देह का स्वामी यह व्यक्ति उसका कौन था यह अनुमान लगाने में अधिक देर नहीं लगी महेसा को।
मन की गाड़ी को ब्रेक लग गया जैसे। वह टिकट बनाने वहीं जा खड़ा हुआ। उसके हावभाव और सहयात्रियों के साथ की इक्का दुक्का बातचीत से अंदाज लगाया कि तीर्थयात्रियों के एक जत्थे के साथ बीमार पति को धोक दिलाने लाई है। पता नहीं उस व्यक्ति की आयु अधिक है या बीमारी के चलते वह कृशकाय व्यक्ति समय से पहले ही बुढ़ा गया है। उसके चेहरे की सलवटों में घुलते देखा उसने कुसुमा के यौवन को और ग्लानि से भर उठा। जिसके लिये दुनिया से लड़ जाने का ऐलान करता था वह, उसके लिये कुछ न कर सका।
मन फिर अतीत की गलियों में जा पहुँचा समय के उस हिस्से में जब उसकी बर्बादी की दास्तान लिखी जा रही थी। कई महीने बाद जिस दिन उसके पैरों में देह को साध लेने की ताक़त लौटी थी, जीवन की साध उसके हाथ से छूट चुकी थी। उसी के दिन-रात के सत्याग्रह पर किसी तरह वे लोग लौटकर गाँव आए तो पाया उसका छोटा सा घर खाक में बदल चुका था। जीव-जिनावर जाने कहाँ डिगर गए थे। गाँव में किसी को न जाने से कोई फ़र्क़ पड़ा था,न लौटने से। बाकी सब कुछ वैसा ही था, खेत, खलिहान, बगिया, पोखर, पगडंडियाँ, सब वही, बस वही नहीं थी जिसके बिना जीवन काँटें में बिंधा फूल हो गया था।
उसके निस्तेज चेहरे और बिरान जिंदगानी में जीवन के चिन्ह खोजती माँ भी एक दिन चली गई। भरी दुनिया में वह बिलकुल अकेला हो गया तो गाँव से फिर यहाँ आगरा चला आया। अकेला नहीं आया। उसके अभिशप्त जीवन में अभी भी अधूरे प्रेम की स्मृतियों को ढोने की ताक़त बची हुई थी सो उन्हें सदा के लिये अपनी मृतसम देह के साथ ढोकर आगरा ले आया।
एक गति से चलती आ रही बस कई जगह रुकते हुए यहाँ पहुँची थी। सामने एक ढाबा था। सड़क किनारे बने इस ढाबे पर चाय, पानी, नाश्ते, खाना आदि की पूरी व्यवस्था थी।
“बस थोड़ी देर यहीं रुकेगी। किसी भाई को पानी, टॉयलेट के लिये उतरना हो तो जा सकते हो। आगे बस नहीं रुकेगी।” घोषणा करते हुए महेसा की नज़र पीछे की सीट पर ही लगी थी। अर्जुन की नज़र चिड़िया की आँख के सिवा भला और कहाँ हो सकती थी।
साथ बैठे आदमी की ओढ़ी हुई चादर को ठीक करते हुए कुसुमा भी बोतल लेकर अगले गेट की ओर बढ़ चली। वह साइड में खड़ा था। उतरते ही उसने लपककर बोतल उसके हाथ से ले ली। कुसुमा अन्य महिलाओं की दिशा में ढाबे के पीछे की ओर बने टॉयलेट की ओर चल दी। जब वह लौटी तो बीच रास्ते में उसकी उम्मीद के अनुसार, महेसा पानी की बोतल लेकर एक साइड में खड़ा अधीरता से उसकी प्रतीक्षा करता मिला। दोनों पीछे की ओर बने कच्चे हिस्से में खड़े पेड़ों के झुरमुट के बीच जा खड़े हुए।
“कई साल बाद मैं जान पायी कि तुम जिंदा हो।”
गुज़रते वक़्त में तू को तुम तक पहुँचते एक कसक के साथ महसूस किया महेसा ने। उसके सीने में जैसे गरम लावे का कोई गोला सा उठा जो तेज़ी से मुँह की राह बाहर निकलने को तत्पर हो उठा।
“अपने दुर्भाग्य की सब कथा जानता हूँ कुसुमा। कितना अभागा हूँ, मैं तो तुझसे ये भी नहीं कह सकता कि मेरी बाट क्यों न देखी।”
“बाट?”
कुसुमा के पास कहने को बहुत कुछ था पर गला था कि रुंध गया था, नज़र थी कि धुंधला गई थी। कुछ क्षण गुज़िश्ता साल उन दोनों की आँखों से बह रहे थे जिसके साथ उनकी पीड़ा, शिकायतें, गिले, शिकवे भी बह निकले। उसने धीमे से कुसुमा का कमजोर सा हाथ अपने हाथों में ले लिया।
फीकी सी हँसी हँसते हुए उसने हाथ छुड़ा लिया। पहले की भाँति। आज भी उसके चेहरे पर उसी स्त्रीसुलभ लज्जा को कौंधते देख महेसा का दिल भावनाओं का बांध तोड़ने पर आमादा होने लगा। लगा सदियों लंबा वह फासला जैसे उसके गालों की लाली में विलीन हो रहा है। उसका दिल किया कुसुमा को अपनी बाहों में जकड़ ले पर उसका बढ़ता हाथ ठिठककर रह गया जब उसकी दृष्टि उसकी मांग के सिंदूर पर पड़ी। लगा जैसे एक बार फिर जवाकुसुम काँटों की बाड़ में घिर गया है।
“क्या सब कुछ बदल गया कुसुमा?”
कुसुमा अपने मौन की कैद में, चुपचाप डबडबाई आँखों से उसे देखते हुए एक छोटे से पत्थर से पेड़ पर निशान बनाती रही।
“मैं वही महेसा हूँ कुसुमा। मैं तो वहीं छूट गया हूँ, उसी मोड़ पर खड़ा हूँ तेरे इंतज़ार में। मेरे दिन रात आज भी तेरी बाट में कटते हैं। लौट चल मेरे साथ…”
उसने हाथ बढ़ाया पर उसके एकाकी हाथ को न हाथ नसीब हुआ, न साथ।
कुछ देर मौन रहकर कुसुमा ने अपने आँसुओं को पोंछ दिया। उसके चेहरे से उमड़ता पीड़ा का सागर अब एक स्थायी दृढ़ता पर जाकर स्थिर हो गया था।
“मुझे जाने दे महेसा। तेरे लिये कुछ नहीं बचा मेरे पास। एक देह है जो हर रात उसी अमराई में पहुँच जाती है, जिस पर हर रात चार प्रेत सवारी करते है, मेरा लहू पीकर भी उनकी प्यास नहीं बुझती। मुझे अधमरा छोड़कर वे चले जाते हैं कि अगली रात फिर लौट सकें। और एक आत्मा है जो मेरे अम्मा बाबू ने सप्तपदी के रोज गिरवी रख दी थी उस बीमार आदमी के पास जिसके साथ फेरे लेने के छह महीने बाद मैं माँ बनी। देह का संबंध जिससे जुड़ा है उसके सुख दुःख की साथी होना ही है।”
“हाँ बस ये आधा-अधूरा, टूटा-चटका मन बचा है इसे बचाकर रखा सौ तूफ़ानों से। ये कभी किसी का न हो सका। इस जनम के कर्ज यहीं चुक जाने दे। सब देह धरे के दण्ड हैं। भुगत लेने दे इस देह को। ये देह तो ऐसे ही मिट्टी हो जाएगी पर उस पार तुझे मिलूँगी अपने नए नकोरे मन के साथ। वहाँ मेरी बाट देखेगा न?” जमाने भर की पीड़ा और नेह एक साथ समेटती उन दो कजरारी आँखों ने उसकी आँखों में झाँककर कहा।
महेसा का समूचा अस्तित्व हाहाकार कर उठा। उसकी देह के पिंजरे में कैद उसकी आत्मा की चीत्कार कुसुमा ने अपनी रूह में जज़्ब की और बिना पीछे देखे बस की ओर बढ़ गई।
मेला अपने उठान पर है। चिनप्पा का कोड़ा आज फिर बरस रहा है। बरस रहा है, बरसे जा रहा है पर रुकता नहीं। चिनप्पा हतप्रभ सा उसे देख रहा है, सड़क पर भीड़ जमा है, मेले घूमने आए लोगों के लिये ये अचंभा ही सही किंतु लहूलुहान हो चुका है महेसा। रात के अँधेरे में नहीं, पर भरी सड़क पर वो भी सही-संझा। उधड़ रही है उसकी पूरी देह, कतरा कतरा बह रहा है लहू, बस प्राण ही नहीं निकलते। प्राण क्यों नहीं निकलते?
लेखिका के बारे में
अंजू शर्मा ईमेल : anjuvsharma2011@gmail.com परिचय : दिल्ली में जन्म और रिहाइश, मूलतः राजस्थान से। सम्प्रति : क्रिएटिव एसोसिएट के रूप में कार्यरत। प्रकाशन : पिछले डेढ़ दशक से भी अधिक समय से सभी प्रतीक्षित पत्र-पत्रिकाओं और ब्लॉग्स में कई वर्षों से कविताओं, कहानियों, लेखों का प्रकाशन। प्रकाशित कृतियाँ दो कविता संग्रह (कल्पनाओं से परे का समय, चालीस साला औरतें), तीन कहानी संग्रह (एक नींद हज़ार सपने, सुबह ऐसे आती है, कथा सप्तक), तीन उपन्यास (शान्तिपुरा, मन कस्तूरी रे, ओ री कठपुतली) प्रकाशित चौथा कहानी संग्रह – दर्पण जुगनू और रात (2024) रूद्रादित्य प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य अनुवाद : अंग्रेजी, पंजाबी, उर्दू, गुजराती, मराठी, राजस्थानी, भोजपुरी, नेपाली, उड़िया, अंग्रेज़ी, तमिल, तेलुगू आदि भाषाओं में कविताओं और कहानियों का अनुवाद। कविता चालीसा साला औरतें बहुत चर्चित हुई और राष्ट्रीय स्तर पर कई कार्यक्रमों के माध्यम से इस पर लगातार बातचीत हुई। विभिन्न अकादमियों सहित आल इंडिया रेडियो और बहुत से महत्वपूर्ण मंचों पर रचनापाठ। कविता ‘बेटी के लिए’ चीन के ‘क्वांगचो हिंदी विश्वविद्यालय, क्वांगचो, चीन’ में स्नातक स्तर के पाठ्यक्रम में सम्मिलित। पुरस्कार : *’इला त्रिवेणी सम्मान 2012′ से सम्मानित। *’राजीव गाँधी एक्सीलेंस अवार्ड 2013′ से सम्मानित *स्त्री शक्ति सम्मान 2014 से सम्मानित *कविता संग्रह ‘कल्पनाओं से परे का समय’ के लिए 2015 में ‘राजेन्द्र बोहरा कविता पुरस्कार 2014’ द्वारा जयपुर में सम्मानित *साहित्य श्री पुरस्कार 2018 द्वारा मेरठ लिटरेचर फेस्टिवल में सम्मानित *’कहानी *मुख़्तसर सी बात है’ 2020 में साहित्य समर्था के डॉ कुमुद टिक्कू विशिष्ट कथा सम्मान से सम्मानित। *उपन्यास ‘ओ री कठपुतली’ सेतु प्रकाशन की पाण्डुलिपि पुरस्कार योजना 2022 के तहत चयनित और प्रकाशित *कहानी ‘उसके हिस्से का आसमान’ कथा रंग के लिये 2023 के ‘आशापूर्णा देवी कथा पुरस्कार’ द्वारा सम्मानित *कहानी संग्रह ‘दर्पण जुगनू और रात’ को 2023 का रूद्रादित्य प्रकाशन का कमलेश्वर स्मृति कहानी पुरस्कार घोषित। *हंस में प्रकाशित कहानी ‘द हैप्पी बड्डे ऑफ सुमन चौधरी’ वर्ष 2020 का *रमाकांत स्मृति कहानी पुरस्कार* से सम्मानित *उपन्यास ओ री कठपुतली पर लघु शोध। अन्य पुरस्कृत कहानियां : कहानी ‘समयरेखा’ स्टोरीमिरर से पुरस्कृत। कहानी ‘बन्द खिड़की खुल गई’ प्रतिलिपि द्वारा आलोचक द्वारा चुनी गई कहानियों में शामिल। कहानी “रात के हमसफ़र’ जयपुर में पहले कलमकार सम्मान 2018 के सांत्वना पुरस्कार के लिए चुनी गई। अनुवाद नौ विश्व साहित्य के क्लासिक उपन्यासों के कॉमिक संस्करण के लिए अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद कार्य। |
बहुत ही खूबसूरत कहानी। प्यार के रंग को और गाढ़ा करती हुई। अंजू शर्मा की कहानियों की खासियत उनकी भाषा और किस्सागोई है
शुक्रिया आकांक्षा
Thank you for visiting
कहानी बहुत पसंद आयी। बृज भाषा में संबाद बहुत मीठे लगे। भाषा शिल्प बेह्तरीन है।
अंजू की प्रेम- कहानियाँ बहुत ही शालीन प्रेमसिक्त होती है। देह का पा लेना ही प्रेम नहीं होता है। प्रेम के अनेक रूप होते है। यह कथा भी प्रेम का एक ऐसा रूप लिए शब्द चित्र की तरह आँखों के आगे से गुज़रती है। स्त्री पुरुष के चरित्र बहुत सघनता से बुने गए है।
इस कहानी के लिए अंजू को बधाई
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शुक्रिया नीलिमा जी
शुक्रिया
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महेसा और कुसुमा की बहुत सुंदर प्रेम कहानी । सांस रोके पढ़ती गई । दो प्रेमियों के बिछड़ने की टीस मन में उठती गई । प्रेम का दुश्मन है समाज, चिन्नपा का कोड़ा पाठक मन की पीठ पर भी पड़ता रहा। देवी की भक्ति से प्रेम की भक्ति का क्या खूब बिम्ब मिलाया आपने। कहीं देह लहूलुहान है तो कहीं मन। एक सुंदर प्रेम कहानी के लिए बहुत-बहुत बधाई अंजू जी
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आभार वन्दना जी
Heart touching story !!!
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Thanx Vishakha
बहुत खूबसूरत कहानी। प्रेम के मर्म से रची बसी उदास छोड़ देने वाली कहानी। महेसा और कुसुमा याद रह जायेंगे।