शीर्षक:- दलित कहानियों में संवेदनात्मक पक्ष, परिवर्तन और दिशा शोध उत्कर्ष (E-Journal) अंक- जनवरी-मार्च 2024
================= संवेदना मनुष्य और साहित्य की किसी भी विधा का मूलभूत आधार होती हैं। अपनी ज्ञानेंद्रियों के द्वारा ही मनुष्य जो सुखानुभूति और दुखानाभूति करता है; उसकी अभिव्यक्ति ही वह रचना में करता रहा है। हिन्दी साहित्य में कथाओं का वृहद इतिहास रहा है, कभी कथाएं मौखिक तो कभी लिखित रूप में रही हैं। पाश्चत्य देशों से प्रारंभ हुई इस विधा ने हिन्दी साहित्य को अत्यंत प्रभावित किया और अंग्रेज़ी कथाओं का प्रत्यक्ष प्रभाव भी हिन्दी कथा साहित्य पर सप्ष्ट रूप में परिलक्षित होता है। आधुनिक युग में कहानी विधा का हिन्दी साहित्य में आगमन हो चुका था। भारतेंदु युग के अंतिम दशक में इस विधा की उत्पत्ति हो चुकी थी। प्रारंभिक कहानियों में सामाजिक कुरीतियों और समाज सुधार का स्वर दृष्टव्य होता है।
“आज की हिन्दी कहानी गतिशील है, आधुनिकता की चुनौती को स्वीकार कर रही है और आधुनिकता एक प्रक्रिया है जिसे नई कहानी ने मूल्य में परिणित कर इसे रूढ़ बनाया है। इसीलिए नई कहानी अपने नयेपन को छोड़कर नए नाम धारण करने को विवश है।”1
नयापन और नवजागरण दलित साहित्य में भी बखूबी उभरा है। कविता, उपन्यास और कहानी, नाटक आदि विधाओं के रूप में इसे देखा जाता रहा है। इसी परम्परा में कथा के क्षेत्र में एक ख्याति प्राप्त नाम है रतनकुमार सांभरिया।
साहित्यकार सांभरिया दलित साहित्य लेखन के अप्रतिम साहित्यकार हैं। उनकी कहानियों की विषयवस्तु में सामाजिक शोषित व्यक्तियों के संवेदनात्मक पहलुओं के साथ अस्मिताबोध, चेतना और आत्मचिन्तन की छवि प्रत्यक्ष नज़र आती है। वर्तमान युग में हाशिए पर खड़े समुदाय और जातियों के अविकसित समाज की यथार्थ अभिव्यक्ति कथाओं में हुई है। एक ओर जहां बंजारे, कंजर, सपेरे, जैसी समस्त कहानियां खानाबदोश जीवन जीने वाली जातियों के खुरदुरे जीवन के कटुतापूर्ण सत्यों का उदघाटन करती हैं तो वहीं दूसरी ओर आंचलिक जीवन में सामान्य श्रमिक, लघु उद्योग से जुड़े लोगों, जातीय पेशे से जुड़े समाज, विधवा जीवन, स्त्री जीवन, विदुर पुरुष और वृद्धावस्था में कठिन परिस्थितियों में गुजरती जिंदगी और उनके साथ हो रहे मानवीय व्यहार के सत्य को चित्रित करती कहानियां हैं, संवेदना की आत्मिक अभिव्यक्ति उनकी कहानियों में हुई है।
उनकी कथाओं में सशक्त बात ये भी है कि एक ओर यथास्थिति के अनुकूल नारी पात्र अपने निर्णय स्वयं लेते हैं, तो वहीं दूसरी ओर अंतर्विरोध की स्थिति से निपटना भी भली- भांति जानते हैं। विपरीत परिस्थियों से जूझते जरूर हैं किंतु निराशावाद का दामन थामने के लिए विवश नहीं होते। जैसे -जैसे कथा आगे बढ़ती है रोचक होती चली जाती है। पाठकों को मुग्ध करने की सारी गुणवत्ता कथाओं में निहित है और वही उनके कथानक को सुदृढ़ बनाती है। संघर्षरत पात्रों को निर्मिति परिवेश की जटिलताओं को साहसपूर्वक पार करती है। आंचलिक क्षेत्र में जातीयता की जटिलता, शोषण की पराकाष्ठा, अपमान की लीक , संघर्ष का संकल्प, जन चेतना, खानाबदोश जीवन की यथार्थ अभिव्यक्ति को बड़ी ईमानदारी के साथ कथाकार ने शब्दबद्ध किया गया है।
सांभरिया की कहानियों में भी नारी शोषण, भारतीय जन जीवन, वर्ग संघर्ष, मानवीय मूल्यों की स्थापना, मानवीय संबंधों में उभरता द्वंद, बहुत गहन चिंतन हृदय को गहराई से प्रभावित करता है। कहानियों के कथ्यों में चेतनता के स्वर उभरते हैं। वृद्ध सेवक जी अपने घर को वृद्धों के लिए वृद्धाश्रम बना देते हैं, ये उनकी जिंदगी से मिले सबक से वो सीखते हैं कि बुजुर्ग होने पर एक सहारे की अवश्यकता होती है। ‘ आश्रय ‘ कहानी का कथानक इसी मूल भाव को रुपायित करता है। सेवक का बेटा जो शहर में निवास करता है वो पिता के उस रहन घर का भी सौदा करना चाहते हैं जिसमें सेवक जी दीन दुखी, रोगग्रस्त वृद्ध व्यक्तियों को आश्रय दिए हुए हैं जिन्हें उनके परिवार त्याग चुके हैं, रिटायरमेंट और पत्नी की मृत्यु के पश्चात वे धन और मन दोनों से ही बेसहारा लोगों के जीवन का संबल बने उदारवादी भावना से ओतप्रोत सेवक अपने बेटे परमेश्वर का कंधा थपका कर कहते हैं – “परमेश्वर जी, रिटारमेंट के बाद मुझे लगा कि बहु बेटे पर आश्रित होने की बजाय मेरा घर और धन बुजुर्गों का आश्रय बन जाए। आप जब भी आश्रय आएं, बेसहारा को जरूर लाएं।”2
पिता की गीली आंखों और इन शब्दों ने अपनी अंतर्वेदना के बहाव को बहा दिया। अप्रत्यक्ष रुप में उस मकान को न बेचने की घोषणा भी कर चुके थे। उनकी कहानियां नए सोपानों को स्पर्…